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Home » Quotes » Dohe and Chaupai » 51+ बिहारी के दोहे हिंदी अर्थ सहित Bihari Ke Dohe with Meaning in Hindi

51+ बिहारी के दोहे हिंदी अर्थ सहित Bihari Ke Dohe with Meaning in Hindi

Last Modified: January 4, 2023 by बिजय कुमार Leave a Comment

51+ बिहारी के दोहे हिंदी अर्थ सहित Bihari Ke Dohe with Meaning in Hindi: इस लेख में आप बिहारी के अनोखे दोहों के साथ हिन्दी में व्याख्या भी दिया गया है। यह कक्षा (Class) 10, 11, 12 के विद्यार्थियों के सिलेबस में आता है।

51+ बिहारी के दोहे हिंदी अर्थ सहित Bihari Ke Dohe with Meaning in Hindi: इस लेख में आप बिहारी के अनोखे दोहों के साथ हिन्दी में व्याख्या भी दिया गया है। यह कक्षा (Class) 10, 11, 12 के विद्यार्थियों के सिलेबस में आता है।

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  • बिहारी लाल कौन थे?
  • 51+ बिहारी के दोहे हिंदी अर्थ सहित Bihari Ke Dohe with Meaning in Hindi

बिहारी लाल कौन थे?

हिंदी साहित्य के महान कवि बिहारी लाल चौबे का जन्म संवत् 1603 ई. में, ग्वालियर के पास बसुआ गोविन्दपुर नामक स्थान में हुआ था। इनके पिता का नाम केशावराय था। 

कवि बिहारी लाल जी के रचनाओं में मुख्यतः श्रृंगार रस देखा जाता है। अपनी रचनाओं में इन्होंने संयोग और वियोग का भी चित्रण बड़े ही मार्मिक ढंग से किया हैं।

हालाँकि कविवर बिहारी लाल के रचनाओं का अर्थ शाब्दिक नहीं होता था। इनके दोहों में अथाह ज्ञान छुपा हुआ है, इसलिए इन्हे गागर में सागर भरने वाले कवि भी कहा जा सकता है।

बिहारी लाल जी के जन्म के सम्बन्ध में निम्न दोहा प्रचलित है- 

जन्म ग्वालियर जानिये, खंड बुंदेले बाल।
तरुनाई आये सुघर, मथुरा बसि ससुराल।।

व्याख्या – बिहारी लाल जी का बाल्यकाल बुंदेलखंड में बीता तथा युवावस्था ससुराल मथुरा में बीता।

51+ बिहारी के दोहे हिंदी अर्थ सहित Bihari Ke Dohe with Meaning in Hindi

  1. कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय, या खाए बौराए जग, वा पाए बौरा। 

 व्याख्या– बिहारी लाल जी कहते है, कि संपत्ति का नशा धतूरे के नशे से सौ गुना ज्यादा होता है, जो मनुष्य की बुद्धि भ्रष्ट कर देता है। अर्थात कनक अथवा धतूरा खाने के पश्चात  लोग बावले हो जाते हैं लेकिन कनक अर्थात सोने को सिर्फ प्राप्त करके ही लोग लालच के कारण बावले हो जाते हैं। यहां कनक शब्द के दो अर्थ होते है धतूरा और स्वर्ण।

  1. तो पर वारौं उरबसी, सुनि राधिके सुजान।
    तू मोहन के उर बसीं,  ह्वै उरबसी समान ।।

व्याख्या– राधा रानी और गोपियों के बीच वार्ता का वर्णन करते हुए बिहारी लाल जी कहते हैं कि राधा रानी को ऐसा प्रतीत हो रहा है कि श्री कृष्ण किसी दूसरी स्त्री के प्रेम में पड़ गए हैं। राधा रानी के इस बात पर उनकी सखी कहती है, की हे राधिका! तुम्हें अच्छी तरह से यह जान लेना चाहिए कि श्री कृष्ण सिर्फ तुमसे ही प्रेम करते हैं। वे तुम पर उर्वशी अप्सरा को भी निछावर कर देंगे, क्योंकि श्री कृष्ण के हृदय में तुम ही उरबसी आभूषण  की तरह बसी हो।

  1. प्रलय-करन बरषन लगे जुरी जलधर इकसाथ।
    सुरपति-गरबु हरयौ हरषि गिरिधर गिरी धरी हाथ।।

व्याख्या– अर्थात देवराज इंद्र अपने घमंड में चूर होकर प्रलय मजा देने वाले बादलों को आज्ञा देते हैं की वे एक साथ इकट्ठे होकर ब्रज में  प्रलयकारी वर्षा करें। किंतु श्री कृष्ण ने ब्रज वासियों की रक्षा करने के लिए गोवर्धन पर्वत को अपनी उंगली पर उठा लिया और इस प्रकार भगवान श्री कृष्ण ने ब्रज वासियों की रक्षा करके देवराज इंद्र के अभिमान को मिट्टी में मिला दिया।

  1. बड़े न हूजे गुणन बिनु, बिरद बड़ाई पाय।
    क़हत धतूरे सो कनक, गहनो गढ्यो न जायँ।।

व्याख्या–  बिहारी लाल जी कहते हैं कि कोई भी व्यक्ति बिना गुण के केवल नाम के सहारे बड़ा नहीं बन सकता, ठीक वैसे ही जिस प्रकार धतूरे को भी कनक कहा जाता है लेकिन उससे आभूषण नहीं बनाया जा सकता।

  1. मैं समुझयौ निरधार, यह जगु काँचो कांच सौ।
    एकै रूपु अपर, प्रतिबिम्बित लखियतु जहाँ।।

व्याख्या– इस संसार को निराधार बताते हुए बिहारी लाल जी कहते हैं, कि इस संसार के सत्य को मैंने जान लिया है जो पूरी तरह से मिथ्या है। यह पूरी दुनिया कांच के समान प्रतीत होती है। यदि कुछ सत्य है तो वे श्री कृष्ण है, जिनकी अपार सौंदर्यता इस पूरी सृष्टि में प्रतिबिंबित हो रही है। 

  1. जगत जनायो जिन सकल, सो हरि जान्यो नाहि।
    ज्यों आंखन जग देखिए, आंख न देखी जाहि।।

व्याख्या– बिहारी लाल जी परम ब्रह्मा की ओर संकेत करते हुए कहते हैं, कि जिन्होंने यह पूरा संसार बनाया है वह किसी को भी दिखाई नहीं देते; जिस प्रकार हम नेत्रों से पूरा संसार तो देख सकते हैं लेकिन स्वयं अपने नेत्रों को नहीं देख सकते हैं।

  1. गोधन तू हरष्यो हिये, घरि इक लेहु पुजाय।
    समुझ परैगी शीश पर, परत पशुन के पाँय।।

व्याख्या– गोवर्धन पर्वत के पूजे जाने के पश्चात गोवर्धन पर्वत से यह कहा जा रहा है कि इतने सम्मान और पूजे जाकर तुम ज्यादा खुश मत हो, क्योंकि जब पशुओं के पैर तुम्हारे मस्तक पर प्रतिदिन पड़ेंगे तब तुम्हे सबक मिलेगा। उपरोक्त से बिहारी लाल जी का संकेत यह है कि सदैव के लिए आदरणीय बने रहने के लिए महान गुणों का होना अति आवश्यक है।

  1. नहिं पावस रितुराज यह, तज तरुवर मति भूल।
    अपतभये बिन पाय हैं, क्यों न बदल फल फूल।।

व्याख्या– बिहारी लाल जी एक वृक्ष का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि हे वृक्ष जब तक तुम अपने पुराने पत्तों को नहीं त्यागोगे तब तक कोई नए फूल और फल नहीं प्राप्त होंगे, क्योंकि यह वर्षा ऋतु नहीं बल्कि वसंत का ऋतु है। अर्थात बिना त्याग और बलिदान के इस धरती पर कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता है।

  1. सोहत ओढ़ैं पीतु पटु स्याम, सलौनैं गात ।
    मनौ नीलमनि सैल पर आतपु परयौ प्रभात॥

व्याख्या – इस दोहे में बिहारी लाल जी भगवान श्री कृष्ण के सांवले और मनमोहक रूप का वर्णन करते हुए कहते हैं की कृष्ण के सांवले काया पर पीले रंग का वस्त्र इस प्रकार शोभा दे रहा है जैसे नीलमणि पर्वत पर प्रातः काल में सूर्य अपनी किरणें बिखेर रहा हो।

  1. तौ लगि या मनसदन में, हरि आवैं केहि बाट।
    निपट विकट जबलों जूट, खुलै न कपट कपाट।।

व्याख्या -अर्थात मन स्वरूप घर में भगवान तब तक प्रवेश नहीं करते जब तक मन का कपट स्वरूप कपाट बंद है। 

  1. दिन दस आदर पायके, करले आप बखान।
    ज्यों लगि काक सराधपख, त्यों लगि तव सन्मान।।

व्याख्या – श्राद्ध पक्ष में पूजे जाने वाले कौवे के विषय में बिहारी लाल जी कहते हैं कि थोड़े समय के लिए सम्मान और आदर पाकर हे कौवे तुम्हें अभिमान नहीं करना चाहिए क्योंकि तुम्हें सम्मान तभी तक मिलेगा जब तक श्राद्ध पक्ष है। अर्थात थोड़ा मान सम्मान और प्रभुता पाकर घमंड कभी नहीं करना चाहिए।

  1. बसे बुराई जासु तन, ताहि कौ सनमानू !
    भलौ भलौ कहि छोडिये, खोंटे गृह जपु दानु !!

व्याख्या – इस दोहे से आशय यह है कि इस दुनिया में जो मनुष्य दूसरों का अहित करता है, दूसरों को नुकसान पहुंचाना चाहता है और अनुचित व्यवहार करता है, अक्सर ऐसे ही लोगों को मान सम्मान दिया जाता है। क्योंकि जिस प्रकार समाज में लोग अच्छे तथा सुख शांति वाले भवन को अच्छा कह कर छोड़ देते हैं लेकिन वहीं दूसरी तरफ अशांति और बाधाओं से भरे भवनों में शांति के लिए दान धर्म और तरह-तरह के कर्मकांड करते हैं।

  1. समय समय सुंदर सबै, रूप कुरूप न कोय।
    मन की रुचि जेती जितै, तिन तेती रुचि होय।।

व्याख्या– बिहारी लाल जी कहते हैं कि समय चक्र के अनुसार हर कोई रूपवान लगता है। इस सृष्टि में ना तो कोई सुंदर है और ना ही कुरूप। जिस तरफ जिसकी रूचि और प्रेम होता है, वही उसे रूपवान लगता है।

  1. आवत जात न जानियतु, तेजही तजि सियरानु ।
    घरहं जँवाई लों घट्यो खरौ पूस-दिन मानु ।।

व्याख्या– इस दोहे में बिहारी लाल जी ने घर जमाई के सम्मान से पूस महीने की तुलना किया है। वे कहते हैं कि जिस प्रकार पूस महीने में दिन बहुत छोटे हो जाते है तथा अपने प्रकाश को त्यागकर पूस के दिन बेहद ठंडे हो जाते हैं, जिससे दिन का समय कब गुजर जाता है कुछ पता ही नहीं लगता। कहने का तात्पर्य है की जिस प्रकार घर जमाई अपने ससुराल में जाकर रहते हैं उससे दिन ब दिन उनका मान सम्मान घटने लगता है और बाद में दामाद के ससुराल में आने- जाने का कुछ ख़बर ही नहीं लगता है।

  1. जौ चाहत चटक न घटे, मैलो होइ न मित्त।
    रज राजसु न छुवाइ, तौ नेह-चींकनौं ।

व्याख्या – इस दोहे में बिहारी लाल जी चंचल मन को शांत और स्वच्छ रखने के बारे में बताते हैं, कि हे मनुष्य यदि तुम चाहते हो की मन का उज्जवल प्रकाश कभी कम ना हो तथा मन कभी भी निराश ना हो तो इसके लिए अपने चिकने मन पर अभिमान, इष्या इत्यादि रजोगुणी धूल को स्नेह स्वरूप तेल से कभी भी स्पर्श होने नही देना। अर्थात जिस प्रकार किसी वस्तु पर तेल लगा होता है यदि उस पर धूल और कण जमा हो जाते हैं तो उस वस्तु की चमक और शुद्धता नष्ट हो जाती है उसी प्रकार अहंकार, ईष्या और क्रोध भी उस धूल के समान ही है जो मन रूपी तेल से स्पर्श होते ही मन की शुद्धता और चमक को नष्ट कर देती है। अतः सुखी रहने के लिए रजोगुणी तत्वों अर्थात मन की बुराइयों को त्यागना आवश्यक होता है।

  1. सतसइया के दोहरा ज्यों नावक के तीर।
    देखन में छोटे लगैं घाव करैं गम्भीर।।

व्याख्या–  इस दोहे में बिहारी लाल जी अपनी रचना सतसई दोहों की तुलना नावक के छोटे तीरों से करते हैं, जो देखने में तो छोटा होता है, लेकिन उनके घाव बेहद गहरे होते हैं ठीक उसी प्रकार उनके रचनाओं के अर्थ और मर्म में अखंड ज्ञान छुपा हुआ है।

  1. बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाइ।
    सौंह करैं भौंहनु हँसै, दैन कहैं नटि जाइ॥

व्याख्या– इस दोहे के माध्यम से बिहारी लाल जी गोपियों और कृष्ण की मुरली का वर्णन करते हुए कहते हैं, कि गोपियों ने कान्हा की मुरली इष्या के कारण छुपा दिया है क्योंकि श्री कृष्ण अपनी मुरली में ही व्यस्त रहते हैं और गोपियों को यह बिल्कुल भी रास नहीं आता। श्री कृष्ण से ढेर सारी बातें करने के लिए गोपियों ने मुरलीधर की मुरली छुपा दिया और ऊपर से कृष्ण के समक्ष नखरे भी दिखा रही हैं। गोपियां अपनी भौंहों से कसमें खा रही हैं लेकिन साथ ही मन ही मन नकार रही हैं।

  1. जपमाला, छापैं, तिलक सरै न एकौ कामु।
    मन काँचै नाचै बृथा, साँचै राँचै रामु॥

व्याख्या– इस दोहे में बिहारी लाल जी ने अध्यात्मिक कर्मकांड के विषय में कटाक्ष किया है। कवि के मतानुसार ढोंग अथवा आडंबर से कोई लाभ नहीं होता क्योंकि मन कांच के भांति होता है जिसे भंगुर होने में क्षण भर का समय भी नही लगता। माला जपने, माथे पर तिलक लगाने अथवा हजारों बार राम राम नाम लेने से ही नहीं कष्ट कटते हैं। अगर सच्चे आस्था से परमेश्व का जतन किया जाए तो वह सही मायने में सार्थक कहलाएगा।

  1. खरी भीरहू भेदिके, कितहूँ ह्वै इत आय।
    फिरै दीठि जुरि दीठसों, सबकी दीठ बचाय।।

व्याख्या–  इस दोहे में कविवर ने सच्चे प्रेम का उदाहरण देते हुए कहा है कि भले ही कोई प्रेमी और प्रेमिका भरे भीड़ में एक दूसरे से बिछड़ ही क्यों न जाए लेकिन एक प्रेमिका की दृष्टि अपने प्रियतम को ढूंढ ही लेती है और फिर से दूसरों की नजरों से बचकर पुनः लौट आती है।

  1. मोर मुकुट कटि काछनी कर मुरली उर माल।
    यहि बानिक मो मन बसौ सदा बिहारीलाल।।

व्याख्या–  बिहारी लाल जी भगवान श्री कृष्ण के मनमोहक रूप का वर्णन करते हुए कहते हैं, कि हे कृष्णा मस्तक पर मोर मुकुट धारण किए हुए, हाथ में मुरली, गले में सुगंधित माला और सांवली काया पर पीली धोती पहने तुम इसी रूप में सदा के लिए मेरे मन में बसते हो।  

  1. कोटि जतन कोऊ करै, परै न प्रकृतिहिं बीच।
    नल बल जल ऊँचो चढ़ै, तऊ नीच को नीच।।

व्याख्या – अर्थात कई बार प्रयास करने के पश्चात भी जिस प्रकार मानव स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं आता ठीक उसी तरह नल से बहने वाला पानी ऊपर की तरफ चढ़ता तो है किंतु बहने की धारा नीचे की ओर ही रहती है।

  1. चलत घरै घर घरतऊ, घरी न घर ठहराति।
    समुझि उही घर को चलै, भूल उही घर जाति।।

व्याख्या– कृष्ण प्रेम में एक गोपी इस प्रकार अपना सुध बुध खो चुकी है की उसकी मति भ्रष्ट हो गई है। केवल घर भर में ही वह घूम रही है। समझ बूझ कर और अनजाने में भी उसी घर में जाती है और घड़ी भर का विश्राम किए बगैर कृष्ण के प्रेम में मगन है। अर्थात अपने प्रभु के प्रेम में उसे कुछ भी सुध नहीं रहा है।

  1. कब कौ टेरतु दीन रट, होत न स्याम सहाइ।
    तुमहूँ लागी जगत-गुरु, जग नाइक, जग बाइ।।

व्याख्या– ईश्वर के दर्शन ना पाने के कारण बिहारी लाल जी रुष्ट होकर कहते हैं कि हे प्रभु! मैं आपके दर्शन पाने के लिए कितने समय से प्रतीक्षा कर रहा हूं, लेकिन आप हैं कि मेरी सहायता ही नहीं करते। हे जगत के स्वामी! परम ब्रह्मा! मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि आप को भी इस स्वार्थी दुनिया की विषैली हवा लग गई है अर्थात आप भी इस संसार की भांति ही अभिमानी हो गए हैं जो आपने मुझ दुखियारे को अब तक अपने दर्शन नहीं दिए।

  1. संगति सुमति न पावहीं परे कुमति कैं धंध।
    राखौ मेलि कपूर मैं, हींग न होइ सुगंध।।

व्याख्या– इस दोहे का आशय यह है की एक बुरी संगति वाला व्यक्ति भले ही सज्जनों के बीच बैठ जाए लेकिन उसमें अच्छे गुण नहीं आ सकते और वह सज्जन नहीं बन सकता। उसी प्रकार जैसे गंदे महक वाले हींग को कितने भी कपूर के साथ मिला कर रख दिया जाए लेकिन उसकी महक सुगंधित नहीं बन सकती।

  1. बर जीते सर मैन के, ऐसे देखे मैन।
    हरनी के नैनानते, हरनी के यह नैन।।

व्याख्या– भगवान श्री कृष्ण के मंत्रमुग्ध कर देने वाले नेत्रों का बखान करते हुए बिहारी लाल जी कहते हैं कि हे कृष्णा आपके इन नैनो ने कामदेव के बाणों को भी बलपूर्वक जीत लिया है। ऐसे मनमोहक नेत्र मैंने आज तक कभी नहीं देखा। प्रभु आपके यह नैन किसी हिरनी के नेत्रों से भी अधिक सुंदर है।

  1. प्रगट भए द्विजराज कुल, सुबस बसे ब्रज आइ।
    मेरे हरौ कलेस सब, केसव केसवराइ॥

व्याख्या – उपरोक्त दोहे में कविवर श्री कृष्ण से कहते हैं कि आपने चंद्रवंश में जन्म स्वयं अपनी इच्छा से लिया तथा स्वतः ही ब्रजभूमि में आकर बस गए। ब्रिज के लोग उन्हें केशव कहकर पुकारते हैं। क्योंकि कवि के पिता का नाम भी केशवराय था, इसलिए बिहारी लाल जी श्री कृष्ण को अपना पिता मानते हुए भगवान श्री कृष्ण से अपने सभी दुखों का नाश करने की अर्चना करते हैं।

  1. दुसह दुराज प्रजानु को क्यों न बढ़ै दुख-दंदु।
    अधिक अन्धेरो जग करैं मिल मावस रवि चंदु ।। 

व्याख्या – अर्थात जिस राज्य में दो शासक होंगे उस राज्य की प्रजा सदैव दुखों से घिरी रहेगी। क्योंकि लोगों को एक नहीं बल्कि दो दो राजाओं की अनुमति माननी पड़ेगी इसके अलावा दोनो शासकों की सेवा भी करनी होगी, जिससे लोगों को दोहरा दुख होगा। ठीक उसी प्रकार जैसे सूर्य तथा चन्द्रमा अमावस्या के समय एक साथ मिलकर संपूर्ण सृष्टि को अंधेरे में डूबो देते हैं।

  1. कारे वर्ण डरावनो, कत आवत यहि गेह।
    कैवा लख्यो सखी लखै, लगै सरहरी देह।।

व्याख्या– दो सखियां आपस में ही काले रंग के डरावने दिखने की बाते कर रही हैं लेकिन साथ में सांवले कृष्ण के विषय में यह भी कहती हैं कि जब काले रंग का कृष्ण मुझे देखता है तो मानो जैसे पूरे शरीर में सरहरी सी होने लगती है।

  1. लिखन बैठि जाकी सबी गहि गहि गरब गरूर।
    भए न केते जगत के, चतुर चितेरे कूर ।।

व्याख्या – बिहारी लाल जी इस दोहे में एक नायिका के मनमोहक सौंदर्यता को वर्णित करते हुए कहते हैं, कि नायिका के सुंदरता का चित्रांकन करने के लिए आए अभिमानी चित्रकार जो अपने आप को सर्वश्रेष्ठ बताते हैं वे सभी उसकी सुंदरता का वास्तविक चित्रांकन करने में असफल है, और उन सभी का अभिमान मिट्टी में मिल गया है, क्योंकि नायिका की सुंदरता एकाएक बढ़ते ही जा रही है।

  1. मेरी भव-बाधा हरौ,राधा नागरि सोइ।
    जां तन की झांई परै, स्यामु हरित-दुति होइ।।

व्याख्या – कविवर कहते हैं कि उनकी सभी बाधाएं केवल चतुर राधा रानी ही दूर कर सकती हैं जिनकी झलक मात्र से ही सांवले रंग के कृष्ण हरित हो जाते हैं। अर्थात बिहारी लाल जी अपनी रचना का समापन सफलतापूर्वक करने के लिए भगवान श्री कृष्णा से आशीर्वाद लेने के लिए राधा जी की स्तुति कर रहे हैं। क्योंकि जहां उनकी परछाई मात्र होती है वहां श्री कृष्ण का वास होता है।

  1. कोऊ कोरिक संग्रहौ, कोऊ लाख हज़ार।
    मो संपति जदुपति सदा,विपत्ति-बिदारनहार।।

व्याख्या – इस दोहे में बिहारी लाल जी कहते हैं, कि चाहे कोई इंसान करोड़ जमा करे या लाख- हजार अथवा कितना भी धन एकत्र करे लेकिन उनकी संपत्ति तो केवल श्री कृष्ण है जो हमेशा उन्हें विपत्तियों से निकलते हैं अर्थात उनके दुखों का नाश करते हैं।

  1. बैठि रही अति सघन बन, पैठि सदन तन माँह ।
    देखि दुपहरी जेठ की छाँहौं चाहति छाँह ।।

व्याख्या – अर्थात जेठ महिने में गर्मी इतनी ज्यादा पड़ती है कि छाया भी छाया की तलाश करने लगती है। अर्थात प्रचंड गर्मी के कारण कहीं भी छांव नहीं नजर आती। ऐसे में शायद किसी घने जंगल में छाया बैठी होगी अथवा किसी घर के भीतर।

  1. कोकहि सकै बड़ेनु सौं लखें बड़ीयौ भूल।
    दीने दई गुलाब की इन डारनु वे फूल ।।

व्याख्या – अर्थात बड़े लोगों से होने वाली चूक को देखकर कोई भी यह नहीं कह सकता की यह उनकी भूल होगी क्योंकि ऐसी भूल के पीछे भी कोई अच्छाई ही छुपी होती है। जिस प्रकार कांटो से भरे वृक्षों में मुलायम और खुशबूदार गुलाब के फूल लगे होते हैं। ठीक उसी प्रकार कोई भी परमेश्वर कि भूल नहीं निकाल सकता क्योंकि वे तो परमब्रह्मा है। ईश्वर जो भी करते हैं सभी के हित में होता है।

  1. कहत, नटत, रीझत, खीझत, मिलत, खिलत, लजियात ।
    भरे भौन में करत है, नैननु ही सब बात ।।

व्याख्या – भरी कक्ष में गुरुओं की उपस्थिति की वजह से नायक और नायिका आपस में संवाद करने में समर्थ नहीं है। ऐसे में दोनो आंखों से ही वार्तालाप कर रहे हैं जहां नायक नायिका से प्रेम क्रीड़ा के लिए प्रार्थना कर रहा है लेकिन नायिका इंकार कर देती है किंतु वह नायिका के नामंजूरी को हां समझ लेता है और खुश हो जाता है। लेकिन नायिका नायक को प्रसन्न देखकर क्रोधित हो जाती है। आखिर में दोनो में इशारों में समझौता हो जाता है तथा पुनः नायक को खुश देखकर नायिका शरमा जाती है। इस प्रकार भरी कक्ष में भी नायक और नायिका एक दूसरे से नेत्रों के जरिए प्रेम संवाद करते हैं।

  1. सुनी पथिक मुँह माह निसि लुवैं चलैं वहि ग्राम।
    बिनु पूँछे, बिनु ही कहे, जरति बिचारी बाम ।।

व्याख्या –  कविवर बिहारी लाल जी कहते हैं कि अपने प्रियतम से बिछड़ कर एक प्रेमिका विरह की अग्नि में इस तरह जल रही है जैसे माघ के महिने में लूसी ताप रही हो अर्थात की प्रेमिका किसी लुहार की धौंकनी प्रतीत हो रही है।

  1. तजि तीरथ, हरी-राधिका-तन-दुति करि अनुरागु।
    जिहिं ब्रज केलि-निकुंज मग पग-पग होते प्रयागु।।

व्याख्या – भगवान श्री कृष्ण जहां स्वयं निवास करते हैं अर्थात ब्रजभूमि जो किसी पवित्र तीर्थ स्थल से कम नहीं है। बिहारी लाल जी भक्तों को कह रहे हैं की जिसके प्रसादपर्यंत गंगा और यमुना संगम तीर्थ का हर पग इस पवित्र माटी में समाया है, जहां स्वयं प्रभु ने लीलाएं रची है वही सभी भक्तों को जाना चाहिए तथा किसी दूसरे तीर्थ के मोह में फंसना नहीं चाहिए। अर्थात श्री कृष्ण और राधा जी की आराधना में ही सारे तीर्थ आते हैं। इसलिए हे मनुष्य तू केवल उस परमेश्वर की आराधना कर।

  1. कहलाने एकत बसत अहि मयूर, मृग बाघ।
    जगतु तपोवन सौ कियौ दीरघ दाघ निदाघ ।।

व्याख्या – गर्मी से त्रस्त होकर सभी जानवर एक ही जगह पर लाचार बैठे हैं। सांप तथा मोर एक साथ एक ही जगह बैठे हुए हैं और बाघ तथा हिरण भी एकपास बैठे हैं। इसे देखकर कवि को ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे संपूर्ण जंगल तपोवन में परिवर्तित हो गया हो। जिस तरह तपोवन में सभी मनुष्य आपसी मतभेद को पीछे छोड़ कर बैठते हैं।

  1. कागद पर लिखत न बनत, कहत सँदेसु लजात ।
    कहिहै सबु तेरौ हियौ, मेरे हिय की बात ।।

व्याख्या – इस दोहे में कविवर ने एक ऐसी नायिका का वर्णन किया है जो अपने प्रियतम को अपना संदेश पहुंचाना चाहती है। लेकिन उसका संदेश इतना बड़ा है कि वह कागज़ में समा ही नहीं रहा है। नायिका बड़ी दुविधा में पड़ गई है जहां वह न तो अपने संदेश वाहक को खुलकर कुछ कह सकती है न ही अपना प्रेम संदेश कागज़ में लिख सकती है। अंत में नायिका संदेश वाहक से कहती है की आप मेरे करीबी हैं इसलिए मेरे दिल का संदेश आप स्वयं ही कह देना।

  1. पत्रा ही तिथि पाइये, वा घर के चहुँ पास।
    नित प्रति पुनयौई रहै, आनन-ओप-उजास।।

व्याख्या – कवि कहते हैं कि पंचांग की तिथि नायिका के घर के चारों तरफ से ही ज्ञात किया जा सकता है, क्योंकि नायिका के सौंदर्य से उसके घर के चारों ओर तेज प्रकाश उत्पन्न हो रहा है जिससे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि वहां पूर्णिमा हो।

  1. गतु जान्यो जिहि सकलु सो हरि जान्यो नाहि !
    ज्यो आन्खिनु सबु देखिये आखि न देखि जाहि !!

व्याख्या – बिहारी लाल जी इस दोहे के माध्यम से यह संदेश देना चाहते हैं कि जिस परमेश्वर ने इस दुनिया की रचना किया है, जिन्होंने संपूर्ण ज्ञान कराया है सर्वप्रथम उन्हें जान लेना चाहिए लेकिन मनुष्य उस परमब्रह्म को छोड़कर बाकी सभी चीजों के बारे में ज्ञान अर्जित कर रहा है।

  1. नर की अरु नल-नीर की गति एकै करि जोइ।
    जेतौ नीचौ ह्वै चलै तेतौ ऊँचौ होइ॥

व्याख्या – अर्थात जिस प्रकार नल से बहने वाला पानी जितना अधिक नीचे की तरफ गिरता है उतनी ही ज्यादा वह ऊपर की तरफ उठता है। नल के नीर की भांति मनुष्य भी जितना विनम्र तथा अवगुणों को त्याग देने वाला होगा वही मनुष्य सर्वश्रेष्ठ कहलाएगा।

  1. दृग उरझत, टूटत कुटुम, जुरत चतुर-चित्त प्रीति।
    परिति गांठि दुरजन-हियै, दई नई यह रीति ।।

व्याख्या – प्रेम की रीति बड़ी अनोखी होती है क्योंकि प्रेम में उलझते नैन हैं, लेकिन परिवार बिखर जाते हैं। वहीं कोई चालक प्रेमी जोड़े तो बंध जाते हैं, लेकिन दुष्ट व्यक्तियों के रिश्तों में दरार पड़ जाती है।

  1. करि फुलेल को आचमन मीठो कहत सराहि।
    रे गंधी मतिमंद तू इतर दिखावत काँहि।।

व्याख्या – मूर्ख लोगों पर कटाक्ष करते हुए बिहारी लाल जी कहते हैं, कि खुशबूदार इत्र को बेचने वाली इत्र की खुशबू के कशीदे पढ़ते हुए उन्हे बेच रही है। हे मंदबुद्धि! भला सुगंध को तारीफ़ की क्या आवश्यकता है।

  1. पतवारी माला पकरि, और न कछू उपाउ।
    तरि संसार-पयोधि कौं, हरि-नावें करि नाउ।।

व्याख्या – इस दोहे में कविवर कहते हैं कि भगवान के नाम की नांव बनाकर माला स्वरूप पतवार के सहारे इस विशाल जगत रूपी सागर को पार करने के अलावा कोई भी अन्य मार्ग नहीं है।

  1. कीनैं हुँ कोटिक जतन अब कहि काढ़े कौनु।
    भो मन मोहन.रूपु मिलि पानी मैं कौ लौनु।।

व्याख्या– कवि का मन पूरी तरह से भगवान श्री कृष्ण में समा गया है। जिस प्रकार पानी में नमक घोल देने पर नमक पूर्णतः पानी में विलेय हो जाता है। उसी प्रकार कवि का हृदय भी ईश्वर में मिल गया है, जिसे कृष्ण प्रेम से अलग कर पाना असम्भव है।

  1. कर लै सूँघि, सराहि कै सबै रहे धरि मौन।
    गंधी गंध गुलाब को गँवई गाहक कौन।।

व्याख्या – इस दोहे में बिहारी लाल एक इत्र बेचने आई महिला से कहते हैं कि हे मूर्ख जहां तुम अपना इत्र बेचने आई हो यहां के लोग तुम्हारा इत्र कभी नहीं खरीदेंगे। ये लोग केवल इत्र को अपने हाथ में लेकर उसकी खुशबू सूंघकर तथा खुशबू की बढ़ाई करके पुनः लौटा देंगे। ये मंदबुद्धि लोग तुम्हारे इत्र की कीमत चुकाने में रुचि नहीं रखते हैं।

  1. बढत-बढत संपत्ति-सलिल मन-सरोज बढि जाय । 
    घटत-घटत पुनि ना घटे बरु समूल कुमलाय ।।

व्याख्या – बिहारी लाल जी धन के विपरीत प्रभाव का वर्णन करते हुए कहते हैं कि जैसे तालाब में जल का स्तर बढ़ने से कमल का नाल भी बढ़ता है लेकिन जैसे ही तालाब में जल का स्तर घटकर निचे आ जाता है तो पुष्प की नाल छोटी नहीं हो पाती और परिणाम स्वरूप वह नष्ट हो जाता है।

  1. अधर धरत हरि कै परत, ओठ-डीठि-पट जोति।
    हरि बाँस की बाँसुरी, इन्द्रधनुष-रँग होति ।।

व्याख्या – इस दोहे में गोपियां राधा से यह बात कह रही हैं कि जब श्री कृष्ण अपने हरे रंग की मुरली को जब लालिमा वाले अपने होंठो पर रखते हैं तो कान्हा की गहरी काली आंखों तथा पीले रंग के वस्त्र के कारण मानो उनकी मुरली इंद्रधनुष की तरह प्रतीत होती है। जब श्री कृष्ण अपनी बांसुरी को अपने होंठो पर रखते हैं तो वह मुरली इंद्रधनुष की भांति सात रंगों में चमकने लगती है और सभी को मंत्र मुग्ध कर देती हैं। 

  1. चटक न छांडतु घटतु हूँ. सज्जन-नेहु गंभीरू ।
    फोके परे न, बरू फटे, रंग्यो चोल रंग चीरू ।।

व्याख्या – बिहारी लाल जी कहते हैं कि मजीठ की लकड़ी को जिस तरह रगड़कर उसमे से लाल रंग प्राप्त किया जाता है तथा उसे गाढ़ा और पक्का करने के लिए उसमे तेल मिलाया जाता है जिसके कारण वह कभी भी अपना रंग नहीं त्यागता और ना ही कभी उसका रंग फीका होता है। ठीक उसी प्रकार सज्जन मनुष्य कभी भी अपने गुणों को नहीं त्यागता। ऐसे सज्जनों के चाहे कितने भी निर्धन और लाचार मित्र क्यों ना हो किंतु वे सदा अपने मित्र का साथ हर परिस्थिति में निभाते हैं।

  1. स्वारथु सुकृतु न, श्रमु वृथा, देखि विहंग विचारि।
    बाज पराये पानि परि तू पछिनु न मारि ।।

व्याख्या – बिहारी लाल जी अपनी रचना में मुगल बादशाह शाहजहां के साथ मित्रता करके हिन्दुओं से लड़ने वाले एक हिंदू राजा जयशाह के विषय में कहते हैं कि हे बाज़! दुश्मनों के साथ मिलकर अपनों के पीठ में खंजर भौंकने से तुम्हे कुछ नही प्राप्त होगा। तुम व्यर्थ ही दूसरों के अहम को संतुष्ट करने के लिए अपने ही पक्षियों को मत मारो।

  1. नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास यहि काल ।
    अली कली में ही बिन्ध्यो आगे कौन हवाल ।।

व्याख्या – इस समय काल में न तो अब तक पुष्प में पराग आए हैं और न ही मीठी मधु मौजूद है यदि अभी से ही भौंरा पुष्प की कली में बेसुध रहेगा तो आगे क्या होगा। इस दोहे के माध्यम से बिहारी लाल जी हिंदू राजा जयसिंह को यह संदेश देना चाहते थे कि अगर राजन सदैव ही अपनी रानियों के प्रेम में लुप्त रहेंगे और अपने राज्य पर जरा सा भी ध्यान नहीं देंगे तो अनर्थ हो सकता है।

आशा करते हैं आपको 51+ बिहारी के दोहे हिंदी अर्थ सहित Bihari Ke Dohe with Meaning in Hindi अच्छा लगा होगा।

Filed Under: Dohe and Chaupai, Quotes Tagged With: kabir das ke dohe, Rahim Ke Dohe for Class 7 in Hindi, बिहारी के दोहे, बिहारी के दोहे हिंदी अर्थ सहित

About बिजय कुमार

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