महावीर स्वामी पर निबंध Essay on Mahavir Swami in Hindi
भारत को तपस्वियों की स्थली कहा जाता है क्योंकि यहाँ पर अनेक संत महात्माओं का जन्म हुआ है। यहाँ पर अनेक महात्माओं ने अपनी कठिन तपस्या के द्वारा आलौकिक ज्ञान को प्राप्त किया और अपने जीवन को मानव एवं समाज के कल्याण के लिए समर्पित कर दिया। इन्ही सन्त महात्माओं में से महावीर स्वामी भी एक थे।
महावीर स्वामी पर निबंध Essay on Mahavir Swami in Hindi
महावीर स्वामी जी का जन्म वैशाली के निकट कुण्डलग्राम नामक गांव में 540 ई0 पू0 में चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को इक्ष्वाकु वंश में हुआ था। महावीर स्वामी जी का वास्तविक नाम वर्द्धमान था। महावीर स्वामी जी के जन्म के बाद ही राजा सिद्धार्थ के राज्य में और इनके धन्य धान्य में बहुत ही ज्यादा वृद्धि हुई थी जिसके कारण से इनके पिता ने इनका नाम वर्धमान रखा था।
इनके पिता का नाम सिद्धार्थ तथा माता का नाम त्रिशला था। महावीर स्वामी जी के एक बड़े भाई और एक बहन भी थी। इनके भाई का नाम नन्दिवर्धन तथा बहन का नाम सुदर्शना था।
महावीर स्वामी जी को श्रमण, वीर, अतिवीर, सन्मति, तथा महावीर जैसे नामों से भी जाना जाता है। जैन धर्म के दिगम्बर परम्परा के अनुसार महावीर स्वामी जी ने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया परन्तु इसी धर्म की स्वेताम्बर परम्परा के अनुसार महावीर स्वामी जी की शिक्षा पूरी होने के बाद इनके माता पिता ने इनका विवाह बसन्तपुर के महासामंत समरवीर की पुत्री, यशोदा से कर दिया था। यशोदा की गर्भ से एक पुत्री ने जन्म लिया जिसका नाम प्रियदर्शना था, जिसे अयोज्या के नाम से भी जाना जाता है। प्रियदर्शना का विवाह जामाली नामक राजकुमार से हुआ था।
महावीर स्वामी जी के माता पिता के देहावसान के बाद ही इनके मन में गृहस्थ जीवन को त्याग कर वैराग्य धारण करने की इच्छा जागृत हुई। महावीर स्वामी जी ने अपने गृहस्थ जीवन को त्याग करने की इच्छा के बारे में अपने भाई को बताया परंतु इनके भाई ने महावीर स्वामी जी को ऐसा करने से मना करते हुए कुछ समय इंतजार करने के लिए कहा। अपने बड़े भाई की बात का मान रखते हुए महावीर स्वामी जी ने दो साल का इंतजार किया।
इसके बाद भी इन्होंने 30 वर्ष की अवस्था मे वन में जाकर केशलोच के साथ अपने गृहस्थ जीवन का त्याग कर वैराग्य को धारण कर लिया। महावीर स्वामी जी ने 12 वर्षो तक कठिन तपस्या की। 12 वर्षो की कठिन तपस्या के बाद 42 वर्ष की अवस्था मे जुम्भग्राम के निकट ऋजुपालिका नदी के किनारे पर एक साल के वृक्ष के नीचे महावीर स्वामी जी को सर्वोच्च ज्ञान की प्राप्ति हुयी जिसे जैन धर्म मे कैवल्य के नाम से जाना जाता है।
महावीर स्वामी जी अपनी पूरी तपस्या के दौरान मौन को धारण किया था। दीक्षा लेने के बाद इन्होंने दिगम्बर समुदाय के साधु के क्रिया कलापों को अपनाया और बिना वस्त्रों के रहने लगे। महावीर स्वामी जी का जन्म तो एक साधारण बालक के रूप में हुआ था परन्तु इन्होंने अपनी कठिन तपस्या के बल पर ईश्वर जैसे पवित्र स्थान को प्राप्त कर लिया था। महावीर स्वामी जी ने अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली थी जिसके कारण इन्हें जितेन्द्रिय भी कहा जाता है।
महावीर स्वामी जी को भारत के सबसे प्राचीनतम जैन धर्म का वास्तविक संस्थापक माना जाता है क्योंकि इन्ही के समय मे जैन धर्म का सबसे अधिक प्रचार प्रसार हुआ था। महावीर स्वामी जी ने जैन धर्म को एकीकृत करके रखा था परन्तु इनके बाद यह धर्म दिगम्बर और स्वेताम्बर नामक दो सम्प्रदायों में विभाजित हो गया।
जैन धर्म में 24 तीर्थंकर हुए जिनमे महावीर स्वामी जी अंतिम तीर्थंकर थे। महावीर स्वामी जी उन महात्माओं में से एक है जिन्होंने मानव के कल्याण के साथ ही साथ पशु पंक्षियों के कल्याण के लिए अपने राज पाट और वैभव को छोड़ कर तप और त्याग के रास्ते को अपनाया।
जैन धर्म के ग्रंथों के अनुसार महावीर स्वामी जी ने कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति के बाद ही लोगों का कल्याण करने की भावना से ही उपदेश देना प्रारंभ किया था। महावीर स्वामी जी के मुख्य शिष्यों की संख्या ग्यारह(11) थी। इनके प्रथम मुख्य शिष्य इन्द्रभूति थे।
इन्ही शिष्यों ने महावीर स्वामी जी के उपदेशों को देश के प्रत्येक कोने तक फैलाने का काम किया था। महावीर स्वामी जी के उपदेशों से उस समय के शासक भी बहुत प्रभावित हुए थे। इन शासको में मौर्य वंश के शासक बिम्बसार तथा चंद्रगुप्त का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है।
भगवान महावीर स्वामी जी ने सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अस्तेय तथा अपरिग्रह को अपने उपदेश का प्रमुख विषय बनाया जिसे जैन धर्म मे पंचशील सिद्धांत के नाम से जाना जाता है, और इसी के बारे में लोगों को उपदेश दिया। अगर महावीर स्वामी जी के उपदेशों के सार के बारे में बात की जाए तो त्याग और संयम, प्रेम और करुणा, शील और सदाचार ही इनके प्रवचनों का सार था।
तीर्थंकर महावीर स्वामी जी ने लगभग तीस (30) वर्षों तक अपने उपदेशों के द्वारा मानव कल्याण का कार्य किया। लगभग बहत्तर (72) वर्ष की अवस्था मे कार्तिक अमावस्या को बिहार राज्य के नालन्दा जिले में पावापुरी नामक स्थान पर इनको मोक्ष की प्राप्ति हुई थी। महावीर स्वामी जी ने श्रमण और श्रमणी, श्रावक और श्राविका इन सभी को लेकर एक चतुर्विध संघ की स्थापना की थी।
तीर्थंकर महावीर स्वामी जी के संघ में लगभग चाैदह हजार (14,000) मुनि, छत्तीस हजार(36,000) आर्यिकाएँ, एक लाख (1,00,000) श्रावक और तीन लाख (300000) श्रविकाएँ थी परन्तु इसके बावजूद भी इनके साथ किसी और मुनि को मोक्ष की प्राप्ति नही हुयी थी। जिस स्थान पर महावीर स्वामी जी को मोक्ष की प्राप्ति हुई थी, पावापुरी में उसी स्थान पर एक मंदिर का निर्माण किया गया है जिसे जल मन्दिर के नाम से जाना जाता है।
जैन धर्म के अनुयायियों के द्वारा तीर्थंकर महावीर स्वामी जी के जन्मदिन को महावीर जयंती के रूप में तथा इनके मोक्ष प्राप्ति वाले दिन को, जैन मंदिरों में दीप प्रज्वलित करके, हिन्दू धर्म मे मनाये जाने वाले दीपावली के त्यौहार की तरह पूरी भव्यता के साथ मनाया जाता है।