महान छत्रपति शिवाजी महाराज के ज्येष्ठ पुत्र, छत्रपति संभाजी महाराज, मराठा इतिहास के एक अद्वितीय योद्धा, विद्वान और धर्मरक्षक के रूप में जाने जाते हैं।
उनका जीवन वीरता, दृढ़ संकल्प और बलिदान की एक प्रेरणादायक गाथा है, जिसने न केवल मराठा साम्राज्य को मजबूत किया बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी एक अमिट छाप छोड़ी।
संभाजी महाराज: प्रारंभिक जीवन और पारिवारिक पृष्ठभूमि
संभाजी महाराज का जन्म 14 मई 1657 को महाराष्ट्र के पुणे जिले में स्थित पुरंदर किले में हुआ था। वे छत्रपति शिवाजी महाराज और उनकी पहली पत्नी महारानी सईबाई के सबसे बड़े पुत्र थे।
शिवाजी महाराज के ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण, संभाजी स्वाभाविक रूप से मराठा साम्राज्य के राजकुमार थे और अपने पिता के पद के उत्तराधिकारी के रूप में देखे जाते थे।
दुर्भाग्य से, संभाजी ने अपनी माँ को बहुत कम समय के लिए ही जाना। सईबाई का निधन 5 सितंबर 1659 को हुआ, जब संभाजी केवल दो वर्ष के थे।
अपनी माता के निधन के बाद, संभाजी का पालन-पोषण उनकी दादी जीजाबाई ने किया। जीजाबाई, जिन्होंने अपने पुत्र शिवाजी को भी वीरता और देशभक्ति के मूल्यों से पोषित किया था, ने संभाजी के चरित्र निर्माण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
उन्होंने न केवल उन्हें वीरता, देशभक्ति और हिंदवी स्वराज्य के आदर्शों का पाठ पढ़ाया बल्कि उनमें राष्ट्रप्रेम, धर्मप्रेम और आदर्श जीवन मूल्यों को भी स्थापित किया।
संभाजी अपने दादा शाहजी महाराज के भी करीब थे। बचपन से ही, संभाजी ने अपने शत्रु की कूटनीति और क्रूरता को समझना शुरू कर दिया था, खासकर आगरा में औरंगजेब से अपनी पहली मुलाकात के दौरान।
जीजाबाई का मार्गदर्शन न केवल उनके मूल्यों को आकार देने में महत्वपूर्ण था, बल्कि इसने संभाजी को तत्कालीन राजनीतिक परिदृश्य और दुश्मनों की रणनीतियों को समझने में भी मदद की, जैसा कि औरंगजेब के दरबार में उनकी प्रारंभिक उपस्थिति से स्पष्ट होता है।
संभाजी महाराज की शिक्षा, प्रशिक्षण, और भाषाई कौशल
संभाजी महाराज असाधारण रूप से बुद्धिमान थे और उन्होंने बहुत कम उम्र में ही विभिन्न विषयों का व्यापक ज्ञान प्राप्त कर लिया था। उन्होंने संस्कृत, मराठी और फारसी भाषाओं में दक्षता हासिल की थी।
कुछ ऐतिहासिक स्रोतों के अनुसार, उन्हें 13 या 14 भाषाओं का ज्ञान था, जिसमें कई यूरोपीय भाषाएँ भी शामिल थीं। छत्रपति शिवाजी महाराज ने स्वयं उन्हें प्रशासन और युद्धनीति की शिक्षा दी, जिससे वे एक कुशल योद्धा और एक सक्षम प्रशासक बने।
अपनी युवावस्था में ही, संभाजी ने अपनी बहादुरी और सैन्य प्रतिभा का प्रदर्शन किया। उन्होंने 16 साल की उम्र में रामनगर में अपना पहला युद्ध लड़ा और जीता।
इसके बाद, 1675-76 के दौरान, उन्होंने गोवा और कर्नाटक में सफल सैन्य अभियानों का नेतृत्व किया। संभाजी महाराज की बहुभाषी क्षमता ने उन्हें न केवल एक विद्वान के रूप में प्रतिष्ठित किया बल्कि उन्हें अपने विरोधियों की रणनीतियों को समझने और अन्य राज्यों के साथ कूटनीतिक संबंध स्थापित करने में भी सहायता की।
उनकी कम उम्र में सैन्य अभियानों में सफलता उनके उत्कृष्ट प्रशिक्षण और स्वाभाविक सैन्य कौशल का प्रमाण है।
शिवाजी महाराज ने यह सुनिश्चित किया कि संभाजी को न केवल युद्ध कौशल में बल्कि प्रशासन और कूटनीति में भी व्यापक प्रशिक्षण मिले।
बचपन से ही, संभाजी को राजनीतिक मामलों में अनुभव प्राप्त होने लगा था, खासकर 1666 में आगरा की अपनी महत्वपूर्ण यात्रा के दौरान, जहाँ उन्होंने पहली बार मुगल बादशाह औरंगजेब की शक्ति और कूटनीति का प्रत्यक्ष अनुभव किया।
14 वर्ष की आयु तक, संभाजी युद्ध, शासन और अर्थशास्त्र जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में पारंगत हो चुके थे। इस व्यापक प्रशिक्षण ने उन्हें एक प्रभावी शासक बनने के लिए अच्छी तरह से तैयार किया।
संभाजी महाराज की प्रतिभा केवल युद्ध और प्रशासन तक ही सीमित नहीं थी। वे एक कुशल लेखक और विद्वान भी थे। आश्चर्यजनक रूप से, केवल 14 वर्ष की आयु में, उन्होंने संस्कृत में तीन महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखे: बुधभूषणम्, नखशिख-नायिकाभेद और सातशातक।
बुधभूषणम् में राज्य के प्रशासन से संबंधित सिद्धांतों और नियमों का विस्तृत विवरण मिलता है। नखशिखा, जो श्रृंगारपुर में लिखी गई थी, में एक महिला के सौंदर्य का सिर से पैर तक वर्णन किया गया है।
सातशातक ब्रज भाषा में एक आध्यात्मिक रचना है। इन साहित्यिक कृतियों से उनकी गहरी विद्वत्ता और विभिन्न विषयों का ज्ञान स्पष्ट होता है।
मराठा साम्राज्य के छत्रपति के रूप में राज्याभिषेक और चुनौतियाँ
छत्रपति शिवाजी महाराज का निधन 3 अप्रैल 1680 को हुआ। इसके बाद, संभाजी महाराज का राज्याभिषेक 16 जनवरी 1681 को रायगढ़ किले में हुआ। हालाँकि, सिंहासन पर उनका आरोहण बिना किसी चुनौती के नहीं था।
कुछ मराठा सरदार शिवाजी महाराज के छोटे पुत्र राजाराम को राजा बनाना चाहते थे, जिसके कारण मराठा साम्राज्य में सत्ता के लिए संघर्ष हुआ। अंततः, संभाजी महाराज ने अपनी वीरता और राजनीतिक रणनीतियों के माध्यम से सिंहासन प्राप्त किया।
शिवाजी महाराज की मृत्यु के बाद उत्तराधिकार को लेकर चुनौती अवश्य थी, लेकिन संभाजी महाराज ने अपनी क्षमता और प्राप्त समर्थन के आधार पर सफलतापूर्वक सत्ता हासिल की। यह सत्ता संघर्ष उनके शासनकाल की प्रारंभिक कठिनाइयों में से एक था।
छत्रपति बनने के बाद, संभाजी महाराज को कई शुरुआती चुनौतियों का सामना करना पड़ा। उन्हें अपने विरोधियों के साथ-साथ शक्तिशाली मुगल साम्राज्य से भी खतरा था।
उनकी सौतेली माँ सोयराबाई अपने पुत्र राजाराम को सिंहासन का उत्तराधिकारी बनाना चाहती थीं और उन्होंने संभाजी के खिलाफ षड्यंत्र रचे। इसके अतिरिक्त, अष्टप्रधान मंडल के कुछ सदस्य भी संभाजी को अपने राजा के रूप में स्वीकार करने के लिए अनिच्छुक थे।
इस प्रकार, संभाजी महाराज को अपने शासनकाल की शुरुआत में ही आंतरिक विद्रोह और बाहरी आक्रमणों दोनों का सामना करना पड़ा।
मुगल साम्राज्य और अन्य शत्रुओं के विरुद्ध सैन्य अभियान
संभाजी महाराज एक असाधारण योद्धा और सैन्य नेता थे। उन्होंने अपने जीवनकाल में लगभग 120 या 121 युद्ध लड़े और यह उल्लेखनीय है कि उन्होंने उनमें से एक भी नहीं हारा।
उन्होंने दक्कन युद्ध के शुरुआती नौ वर्षों में मराठा सेना का नेतृत्व किया। 1681 में छत्रपति बनने के बाद, उनका पहला महत्वपूर्ण सैन्य अभियान बुरहानपुर पर आक्रमण था।
इस युद्ध में, 20,000 मराठा सैनिकों ने मुगल सेना को हराया और खानदेश में स्थित औरंगजेब की राजधानी को लूट लिया। संभाजी महाराज की महत्वाकांक्षा मुगलों को पूरी तरह से भारत से खदेड़ना थी।
वर्ष (Year) | अभियान/युद्ध (Campaign/Battle) | परिणाम (Outcome) |
1674 | रामनगर का पहला युद्ध (First Battle of Ramnagar) | मराठा विजय (Maratha Victory) |
1675-76 | गोवा और कर्नाटक में अभियान (Campaigns in Goa and Karnataka) | मराठा विजय (Maratha Victory) |
1681 | बुरहानपुर का आक्रमण (Attack on Burhanpur) | मराठा विजय (Maratha Victory) |
1681 | मैसूर पर आक्रमण (Invasion of Mysore) | मराठा विजय (Maratha Victory) |
1682-1683 | पुर्तगालियों के खिलाफ अभियान (Campaigns against the Portuguese) | आंशिक मराठा विजय (Partial Maratha Victory) |
1684 | रामनगर में मुगलों को हराया (Defeated Mughals at Ramnagar) | मराठा विजय (Maratha Victory) |
1687 | वाई में मुगलों को हराया (Defeated Mughals at Wai) | मराठा विजय (Maratha Victory) |
1687 | भूपलगढ़ की लड़ाई (Battle of Bhupalgarh) | मराठा विजय (Maratha Victory) |
जिंजी की घेराबंदी, जो 1690 से 1698 तक चली, संभाजी महाराज की मृत्यु के बाद हुई, इसलिए वे इसमें सीधे तौर पर शामिल नहीं थे।
हालाँकि, उनके नेतृत्व में मराठा प्रतिरोध ने मुगल सेना को इतना व्यस्त रखा कि राजाराम महाराज को बाद में जिंजी से अपना संघर्ष जारी रखने का अवसर मिला।
बरार की विजय के संबंध में, जबकि कुछ स्रोतों में मुगलों द्वारा संभाजी को दी गई और फिर वापस ले ली गई बरार की जागीर का उल्लेख है , “बरार की विजय” के रूप में कोई विशिष्ट और प्रमुख सैन्य अभियान स्पष्ट रूप से सामने नहीं आता है।
यह संभव है कि बरार क्षेत्र में मराठाओं की कुछ झड़पें या नियंत्रण के प्रयास हुए हों, लेकिन उन्हें व्यापक रूप से एक बड़ी जीत के रूप में प्रलेखित नहीं किया गया है।
संभाजी महाराज की अन्य महत्वपूर्ण सैन्य उपलब्धियों में 1681 में मैसूर पर आक्रमण और वोडियार चिक्कादेवराय को दंडित करना शामिल है।
उन्होंने पुर्तगालियों के खिलाफ भी कई अभियान चलाए, जिसमें गोवा पर नियंत्रण स्थापित करना भी शामिल था। इसके अतिरिक्त, उन्होंने जंजीरा के सिद्दियों के खिलाफ नौसैनिक संघर्षों में भी भाग लिया और रामनगर (1674) और वाई (1687) में मुगल सेना को हराया।
संभाजी महाराज की गिरफ्तारी और बंदीकरण की परिस्थितियाँ
1689 में, संभाजी महाराज को संगमेश्वर, कोंकण में मुगल सेना ने धोखे से पकड़ लिया। वह अपने कुछ साथियों और प्रमुखों के साथ एक गुप्त बैठक के लिए वहाँ थे।
मुगल सरदार मुकर्रब खान ने लगभग 25,000 सैनिकों के साथ संभाजी को घेर लिया, जबकि उनके साथ केवल 200 सैनिक थे।
संभाजी महाराज की गिरफ्तारी विश्वासघात और मुगल सेना की संख्यात्मक श्रेष्ठता के कारण हुई। संगमेश्वर में एक गुप्त सभा के दौरान घात लगाकर उन पर हमला किया गया, जिसने मराठा प्रतिरोध को एक बड़ा झटका दिया।
इस गिरफ्तारी में गद्दार गणोजी शिर्के की महत्वपूर्ण भूमिका थी। गणोजी शिर्के संभाजी महाराज के बहनोई थे। संभाजी महाराज द्वारा उन्हें वतनदारी और जहागिरी देने से इनकार करने के कारण, शिर्के ने मुगलों से हाथ मिला लिया।
शिर्के ने मुकर्रब खान को एक गुप्त मार्ग से 5000 सैनिकों के साथ संगमेश्वर पहुंचने में मदद की। कुछ इतिहासकारों का यह भी मानना है कि अन्नाजी दत्तों के समर्थकों का भी संभाजी की गिरफ्तारी में हाथ था।
गणोजी शिर्के का विश्वासघात संभाजी महाराज की गिरफ्तारी में महत्वपूर्ण साबित हुआ। व्यक्तिगत लाभ और प्रतिशोध की भावना से प्रेरित होकर, उसने मुगलों को मूल्यवान जानकारी और सहायता प्रदान की, जिससे संभाजी की अप्रत्याशित गिरफ्तारी संभव हो सकी।
यातना, इस्लाम धर्म अपनाने का दबाव, और दृढ़ अस्वीकृति
गिरफ्तारी के बाद, संभाजी महाराज और उनके मित्र कवि कलश को बहादुरगढ़ ले जाया गया। वहाँ, औरंगजेब ने संभाजी महाराज के सामने इस्लाम धर्म अपनाने और अपने सभी किले मुगलों को सौंपने का प्रस्ताव रखा।
संभाजी महाराज ने इस प्रस्ताव को दृढ़ता से अस्वीकार कर दिया। उन्होंने कथित तौर पर कहा कि यदि बादशाह अपनी बेटी भी दे देंगे, तो भी वे इस्लाम स्वीकार नहीं करेंगे।
संभाजी महाराज ने औरंगजेब के दबाव के आगे घुटने टेकने से इनकार कर दिया, जो उनके अटूट धार्मिक विश्वास और गहरे स्वाभिमान को दर्शाता है।
इस अस्वीकृति के बाद, संभाजी महाराज को लगभग 40 दिनों तक अमानवीय यातनाएँ दी गईं। उनकी जुबान काट दी गई, उनकी आँखें निकाल ली गईं, उनके नाखून उखाड़ दिए गए और उनके शरीर के अंगों को धीरे-धीरे काटा गया।
उन्हें जोकरों के कपड़े पहनाकर पूरे शहर में घुमाया गया और उनका अपमान किया गया। इन भयानक यातनाओं के बावजूद, उन्होंने न तो अपना धर्म त्यागा और न ही मुगलों के सामने झुके।
अंततः, 11 मार्च 1689 को उनकी हत्या कर दी गई और उनके शरीर के टुकड़े नदी में फेंक दिए गए। संभाजी महाराज को दी गई अमानवीय यातनाओं का विवरण उनकी अटूट दृढ़ता और साहस को दर्शाता है।
40 दिनों तक असहनीय पीड़ा सहने के बावजूद, उन्होंने अपने विश्वास और स्वाभिमान को बनाए रखा, जिससे वे एक महान शहीद बन गए।
मराठा साम्राज्य को सुदृढ़ करने और हिंदवी स्वराज्य की रक्षा में संभाजी महाराज का योगदान
संभाजी महाराज ने अपने अल्प शासनकाल के दौरान मराठा साम्राज्य को मजबूती से बनाए रखा और उसका विस्तार किया। उन्होंने अपने पिता छत्रपति शिवाजी महाराज की नीतियों और प्रशासन को जारी रखा।
उनके नेतृत्व में, मराठों ने अकेले ही अपने सभी दुश्मनों से लड़ाई लड़ी। उन्होंने मुगलों को दक्कन में अपने साम्राज्य का विस्तार करने से रोकने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
उनके शासनकाल के दौरान, मराठा साम्राज्य ने 15 गुना बड़े मुगल साम्राज्य का अकेले ही मुकाबला किया। संभाजी महाराज का सबसे महत्वपूर्ण योगदान हिंदवी स्वराज्य और हिंदू धर्म की रक्षा के लिए उनका अटूट समर्पण था।
उन्होंने अपने प्राणों की आहुति देकर भी अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया, जिससे मराठा प्रतिरोध और मजबूत हुआ और मुगल साम्राज्य के अंत की नींव पड़ी।
उन्हें हिंदवी स्वराज्य और हिंदू धर्म की अस्मिता की रक्षा करने के कारण ‘धर्मवीर’ की उपाधि दी जाती है। उन्होंने अपने प्राण देकर भी अपने हिंदू धर्म और स्वाभिमान का त्याग नहीं किया।
उनके बलिदान ने सभी मराठा और अन्य हिंदू राज्यों को एकजुट होकर मुगलों से लड़ने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने औरंगजेब के हर धर्म परिवर्तन के प्रयास को विफल कर दिया।
संभाजी महाराज: विरासत और महत्व
संभाजी महाराज अपनी असाधारण वीरता, विद्वत्ता और धर्मनिष्ठा के लिए प्रसिद्ध हैं। उन्हें ‘छावा’ (शेर का बच्चा) के रूप में जाना जाता था क्योंकि वे अपने पिता छत्रपति शिवाजी महाराज की तरह ही एक महान योद्धा थे।
उनकी वीरता और उच्च चरित्र आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं। उनकी शहादत ने मराठों को एकजुट किया और अंततः औरंगजेब की सत्ता को समाप्त कर दिया।
कुछ इतिहासकारों ने उनके चरित्र और कुछ निर्णयों पर नकारात्मक दृष्टिकोण व्यक्त किए हैं , लेकिन उनकी असाधारण वीरता और बलिदान को व्यापक रूप से सराहा जाता है।
संभाजी महाराज स्वाभिमान और निडरता के प्रतीक हैं। उन्होंने कभी भी मुगलों के सामने आत्मसमर्पण नहीं किया और न ही इस्लाम धर्म कबूल किया, भले ही उन्हें अमानवीय यातनाएँ दी गईं।
उनकी कहानी मराठा गौरव और प्रतिरोध की भावना को प्रेरित करती है। उन्हें एक ऐसे राजा के रूप में याद किया जाता है जिन्होंने अपने धर्म और मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दी।
निष्कर्ष
छत्रपति संभाजी महाराज का जीवन एक असाधारण योद्धा, विद्वान और धर्मपरायण शासक का जीवन था। उन्होंने अपने पिता की विरासत को आगे बढ़ाया और मराठा साम्राज्य को और मजबूत किया।
मुगलों के खिलाफ उनका अटूट प्रतिरोध और इस्लाम धर्म अपनाने से उनका दृढ़ इनकार उन्हें भारतीय इतिहास में एक अद्वितीय स्थान दिलाता है।
उनकी शहादत मराठा गौरव, स्वाभिमान और निडरता का प्रतीक है, और उनकी कहानी आज भी पीढ़ियों को प्रेरित करती है।
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