भारत में लैंगिक असमानता Gender Inequality in India Hindi
आज के 21वीं शताब्दी के तथाकथित आधुनिक भारत में आज भी पुत्र के जन्म पर धूमधाम से अनेक प्रकार के उत्सव मनाये जाते हैं, वही दूसरी ओर, यह भी सत्य है कि एक पुत्री के जन्म से, उसी घर में उदासी या मातम का माहौल छा जाता है।
पुत्र-चाह में अंधे दंपत्ति द्वारा पुत्री के जन्म से पहले गर्भ में या पुत्री जन्म के पश्चात, उसकी हत्या करने के इस भयावह कार्य ने निश्चित ही मानवता को शर्मसार किया है।
भारत में लैंगिक असमानता Gender Inequality in India Hindi
हमारे धर्म और शास्त्रों में स्त्री को देवी माना गया है, परंतु इसके बावजूद उसे अपने अस्तित्व को बचाने के लिए, जीवन के हर कदम पर संघर्ष करना पड़ता है। एक तरफ तो हम देवियों की पूजा करते हैं, परन्तु उसी समय हम अपने ही परिवार की स्त्रियों का शोषण कर रहे होते हैं। हम उस समाज का हिस्सा बन चुके हैं, जिसके मूल्य एवं सिद्धांत में दोहरे मापदंडों की मौजूदगी होना किसी अचरज का विषय नही है।
कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे कथन, हमारे आचार विचार एवं कार्य से हमेशा विपरीत ही होते हैं। लैंगिक असमानता आज के समय में एक बहुत ही गंभीर मुद्दे के रूप में उभरकर सामने आया है।
अधिकांश लोगों का मानना है कि लैंगिक असमानता या लैंगिक भेदभाव सिर्फ अर्थ यानी कि धन, कार्य में भागीदारी अथवा साझेदारी, पुरुषों की स्त्रियों के प्रति असंवेदनशीलता से सम्बंधित है।
परंतु सत्य तो यह है कि आज भी लोग ऐसे संस्थान, परंपराओं, संरचनाओं अथवा प्रणालियों को संरक्षण प्रदान करते हैं जो मूल रूप से स्त्री विरोधी हैं एवं स्त्रियों को उनके अधिकारों तथा कर्तव्यों से वंचित करना चाहते हैं।
पितृसत्तात्मकता
अमेरिकी समाजशास्त्री विलियम ओगबर्न, लैंगिक असमानता को संस्कृति के पिछड़ेपन का ही एक रूप मानते हैं। सांस्कृतिक पिछड़ापन, वह असंगति है जो मनुष्य को उसके तेज़ गति के भौतिक विकास के अनुरूप ना ढाल पाने के कारण उत्पन्न होती है। जो कालांतर में उसके व्यवहार एवं मनोभावों के ज़रिये सामने आती है।
भारतीय समाज में लैंगिक असमानता के लिए मूल रूप से जिम्मेदार इसमें मौजूद पितृसत्तात्मक प्रणाली है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री सिल्विया वाल्बी के अनुसार,” पितृसत्तात्मकता सामाजिक संरचना की वह प्रणाली है जिसमे पुरुषों द्वारा स्त्रियों का विरोध, शोषण एवं उन पर वर्चस्व जमाया जाता है।
स्त्रियों का शोषण भारतीय समाज में पुराने समय से चली आ रही रीतियों के कारण ही है। कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो नतीजा यही सामने आता है कि आज के समाज में भी अधिकांश स्त्रियों को अपने जीवन से जुड़े महत्वपूर्ण फैसले लेने का अधिकार नही है।
इन सब बातों के बीच सबसे दुखद ये है कि स्त्रियों ने भी स्वयं को पुरुषों के अधीन स्वीकार कर लिया है एवं उन्होंने स्वयं ही अपने आप को दोयम दर्जे का मान लिया है।समाज में स्त्रियों के निचले स्तर के लिए यह दो कारण प्रमुख रूप से दोषी हैं: अत्यंत निर्धनता एवं शिक्षा का अभाव। यही कारण है कि स्त्रियों को कम आमदनी वाले घरेलू कार्य एवं स्थानांतरित श्रमिक के रूप में असंगठित क्षेत्र में कार्य करने के लिए बाध्य होना पड़ता है।
स्त्रियों को न सिर्फ समान कार्य के लिए निम्न वेतन दिया जाता है, बल्कि उन्हें निम्न कुशलता वाले कार्यों में ही शामिल किया जाता है, जिसकी आमदनी स्वाभाविक रूप से ही कम होती है। यह लैंगिक असमानता के एक बड़े तथा मुख्य रूप में उभरकर सामने आया है।
शिक्षा से वंचित
घर की पुत्री को शिक्षा देना, दुर्भाग्यवश आज भी एक घाटे का सौदा ही माना जाता है क्योंकि एक दिन उसे विवाह करके दूसरे घर जाना होता है । उच्च शिक्षा के अभाव में उन्हें आज की महत्वाकांक्षी कार्य कुशलताओं एवं क्षमताओं के लिए अयोग्य एवं अनुपयुक्त ठहराया जाता है।
और यह असमानता सिर्फ शिक्षा तक सीमित ना रह कर परिवार की खान-पान की आदतों में भी देखी जा सकती है। जहाँ एक तरफ घर के पुत्र के लिए अनेक प्रकार के स्वादिष्ट एवं पौष्टिक व्यंजन बनाये जाते हैं, वहीँ दूसरी तरफ पुत्री को कम पोषण वाला तथा थोड़ा-सा बचा-खुचा भोजन दिया जाता है।
एवं इसी कारण आगे चलकर पुत्री को अनेक प्रकार की बीमारियों तथा कुपोषण जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। अतः हम कह सकते हैं कि लैंगिक असमानता, घर हो या बाहर, हर स्थान पर अलग अलग स्तर पर विद्यमान है।
संविधान को सुना जाए
भारतीय संविधान में लैंगिक असमानता को दूर करने के कुछ सकारात्मक प्रावधानों का उल्लेख मिलता है। संविधान की प्रस्तावना प्रत्येक भारतीय नागरिक के लिए हर तरह के सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक न्याय तथा स्तर एवं अवसर की समानता पर ज़ोर देती है।
इसके अलावा भारतीय राजनैतिक प्रणाली स्त्रियों को समान चुनाव अधिकार प्रदान करती है। संविधान में अनुच्छेद 15 में किसी भी प्रकार का भेदभाव, फिर चाहे यह लिंग, जाति, धर्म, नस्ल, रंग या जन्म स्थान के आधार पर हो, अमान्य तथा निषेध है।
अनुच्छेद 15(3) राज्य को यह अधिकार देता है कि ज़रूरत के अनुसार वह स्त्रियों तथा बच्चों के लिए विशेष रूप से कानून बनाकर उसे पारित कर सकते हैं। इनके अलावा समय समय पर केंद्र सरकार द्वारा संसद में बनाये गए बिल द्वारा अनेक ऐसे कानून पारित किए गए हैं जो स्त्री शोषण को रोक कर, स्त्रियों का समाज में समान स्तर सुनिश्चित करा सकें।
उदाहरण के तौर पर 1987 में आया ‘सती प्रथा(रोकथाम) कानून’; ‘दहेज़ रोकथाम कानून, 1961’; ‘विशेष विवाह कानून, 1954’; ‘लिंग चयन प्रतिषेध अधिनियम,1994’ इत्यादि कानूनों के द्वारा स्त्री को सशक्त करने का प्रयास किया गया है।
परंतु इन सब प्रयासों के बावजूद ज़मीनी हकीकत कुछ और ही है, अभी भी स्त्रियों को इस देश में दोयम दर्जे का नागरिक माना जाताज़ है एवं पुरुषों द्वारा उन्हें केवल भोग का साधन एवं घरेलू कार्य करने वाली दासी ही समझा जाता है।
निष्कर्ष
ऐसे ही अनेकों प्रावधान आने वाले समय में बनते रहेंगे, कड़े कानून लागू होते रहेंगे, परंतु वास्तव में बदलाव तभी आ सकेगा जब स्त्रियों को लेकर पुरुषों एवं समाज की मानसिकता में परिवर्तन आना शुरू होगा।
जब पुरुष स्त्री को अपने अधीन ना समझकर उसे अपने समान दर्ज़ा एवं सम्मान प्रदान करेगा। और मानसिक परिवर्तन सिर्फ पुरुषों में ही नही आये, बल्कि स्त्रियों को भी अपने अधिकारों के लिए आगे आना होगा, उन्हें इस पितृसत्तात्मक प्रणाली में लिप्त बुराइयों के खिलाफ आवाज़ उठानी होगी एवं आंदोलन करने होंगे।
स्त्री सशक्तिकरण की का मुख्य ध्येय स्त्रियों को आर्थिक, मानसिक रूप से स्वतंत्र एवं सक्षम बनाना है, जिससे कि वे स्वयं को हर तरह के भय तथा संघर्ष का सामना करने के योग्य बना सके। जहाँ उन्हें चुनाव एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्राप्त हो तथा अपने फैसले स्वयं से लेने का अधिकार प्राप्त हो।
जब स्त्री पुरुष कदम से कदम मिलाकर किसी भी क्षेत्र में आगे बढ़ सकेंगे , बिना किसी प्रकार की लैंगिक तथा आर्थिक असमानता के, तभी असल मायने में यह समाज अपने आचार-विचार, मानसिकता एवं व्यवहार में आधुनिक एवं सभ्य समाज कहा जा सकेगा|