गुप्त वंश का इतिहास History of Gupta Empire in Hindi

इस लेख में आप गुप्त वंश का इतिहास (History of Gupta Dynasty in Hindi) हिन्दी में पढ़ेंगे। जिसमें इस वंश की उत्पत्ति, शासक (प्रमुख राजा), पतन, मंदिरों की विशेषताएँ दी गई है।

गुप्त वंश का इतिहास History of Gupta Dynasty in Hindi

प्राचीन भारत के प्रमुख राजवंशों में से एक गुप्त राजवंश है। इतिहासकारों के अनुसार इस अवधि को भारत का स्वर्ण युग माना जाता है। कुशाणों के बाद गुप्त वंश, अति महत्वपूर्ण साम्राज्य था।

इतिहास में गुप्त साम्राज्य का प‍हला प्रसिद्ध सम्राट चन्द्रगुप्त था। इसने ही लिच्छिवियों के प्रमुख की पुत्री कुमार देवी से विवा‍ह किया था। गुप्त वंश भारत का स्वर्ण युग क्यों कहा जाता है, और इसकी अवनति के क्या कारण थे इसके बारें में हम आज चर्चा करेंगे –

गुप्त वंश की उत्पत्ति Origin and Rise of Gupta Dynasty in Hindi

इस गुप्त साम्राज्य की नींव तीसरी शताब्दी के चौथे दशक में रखी गयी थी, जबकि इसका उत्थान चौथी शताब्दी की शुरुआत में हुआ। गुप्त वंश का प्रारम्भिक राज्य आधुनिक उत्तर प्रदेश और बिहार में था।

मौर्य वंश के पतन के बाद हर्ष के समय तक भारत में राजनीतिक एकता स्थापित नहीं हो सकी। हालाँकि कुषाण एवं सातवाहनों ने राजनीतिक एकता लाने का भरसक प्रयास किया।

मौर्या वंश के पतन के पश्च्यात तीसरी शताब्दी ईसवी में तीन राजवंशो का उदय हुआ जिसमें मध्य भारत में नाग शक्ति, दक्षिण में वाकाटक तथा पूर्व में गुप्त वंश प्रमुख थे। इस वंशो में से गुप्त वंश ही एक ऐसा वंश था, जो राजनीतिक एकता को पुनः स्थापित करने में सफल रहा।

गुप्त शासको के नाम श्री, चन्द्र, समुद्र, स्कन्द आदि थे, गुप्त उनका उपनाम था, जो उनके वर्ण व जाति को परिभाषित करता था। गुप्त शासक वैश्य समुदाय से थे। इतिहास में जिस प्राचीनतम गुप्त राजा के बारे में पता चला है वो है श्रीगुप्त हैं।

श्रीगुप्त द्वारा गया में चीनी यात्रियों के लिए एक मंदिर बनवाया गया था, जिसका उल्लेख चीनी यात्री इत्सिंग द्वारा 500  वर्षों के बाद सन् 671 से सन् 695 के बीच में किया गया।

इतिहासकार के अनुसार श्रीगुप्त अधीन छोटे से राज्य प्रयाग का शासक था। गुप्त सम्राटो ने यज्ञोपवित धारण किया व अश्वमेध यज्ञ कराते थे। गुप्त वंश के समय में भारत सोने की चिड़िया कहलाता था।

गुप्त वंश के शासक Rulers of Gupta Dynasty in Hindi

घटोत्कच (319)

गुप्त वंश के शासक श्रीगुप्त के पश्च्यात उसका पुत्र घटोत्कच राजगद्दी पर बैठा। इसने २८० ई. से 320 ई. तक शासन किया। इसने महाराजा की उपाधि धारण की थी। उत्पन्न होते समय उसके सिर पर केश (उत्कच) न होने के कारण उसका नाम घटोत्कच रखा गया। वह अत्यन्त मायावी था जिस कारण वो जन्म लेते ही बड़ा हो गया था।

चंद्रगुप्त प्रथम (320-350)

अपने पिता घटोत्कच के बाद सन् ३२० में चन्द्रगुप्त प्रथम राजा बना। चन्द्रगुप्त, गुप्त वंशावली में पहला स्वतन्त्र शासक था। इसने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की थी। बाद में लिच्छवि को अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। यहीं से उसका साम्राज्य विस्तार हुआ। उसने सफलता पूर्वक लगभग पंद्रह वर्ष (320 ई. से 335 ई. तक) तक शासन किया।

समुद्रगुप्त (350-375)

चन्द्रगुप्त के 15 वर्षो तक शासन करने के बाद उत्तराधिकारी के रूप में 330 ई0 में समुद्रगुप्त, गुप्त वंश का शासक बना। जिसने करीब 50 वर्षो तक शासन किया। वह बहुत ही प्रतिभाशाली योद्धा था, अपनी बुद्धि और कौशक के बल पर उसने पूरे दक्षिण में सैन्य अभियान करके विन्ध्य क्षेत्र के बनवासी कबीलों को परास्त किया।

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (380-413)

समुद्रगुप्त के सफलतापूर्वक शासन करने के पश्च्यात उत्तराधिकारी के रूप में चन्द्रगुप्त के हाथों में गुप्त वंश की सत्ता आयी। चन्द्रगुप्त को विक्रमादित्य के नाम से भी जाना जाता है।

इतिहासकारों के अनुसार समुद्रगुप्त के बाद रामगुप्त सम्राट बना, जो समुद्रगुप्त का बड़ा पुत्र था, निर्बल एवं कायर होने के कारण ‌चन्द्रगुप्त ने अपने बड़े भाई रामगुप्त की हत्या कर दी और उसकी पत्नी से विवाह कर लिया और गुप्त वंश का शासक बन बैठा।

चन्द्रगुप्त द्वितीय ने शकों पर विजय के पश्चात् विक्रमादित्य की उपाधि धारण की। उसकी अन्य उपलब्धियां विक्रमांक और परम्परागत थीं। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य को भारत के महानतम सम्राटों में से एक माना जाता है, उसने अपने साम्राज्य का विस्तार वैवाहिक संबंधों और विजय दोनों से किया। ध्रुवदेवी और कुबेरनागा उसकी दो पत्नियाँ थीं।

उसने मालवा, गुजरात व काठियावाड़ के बड़े भूभागों पर विजय प्राप्त की। इस विजय से उसे असाधारण धन की प्राप्ति हुई और गुप्त साम्राज्य की समृद्धि में वृद्धि हुई।

अब तक गुप्त राजाओ ने पश्चिमी देशों के साथ समुद्री व्यापार प्रारंभ कर दिया था। उसी के शासनकाल में संस्कृत के महानतम कवि व नाटककार कालीदास व बहुत से दूसरे वैज्ञानिक व विद्वान को फलने फूलने का मौका प्राप्त हुआ। चन्द्रगुप्त द्वितीय कला और साहित्य का महान संरक्षक था।

उसके दरबार में विद्वानों की मंडली रहती थी, जिसे नवरत्न कहा जाता था। चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन काल में चीनी यात्री फाह्यान भारत आया था। उसने अपने यात्रा वृतान्त में मध्य प्रदेश को ब्राह्मणों का देश कहा है।

कुमारगुप्त (415 – 455)

चन्द्र गुप्त द्वितीय की मृत्यु के बाद कुमारगुप्त प्रथम सन् 415 में राजा बना। अपने दादा समुद्रगुप्त की तरह उसने भी अश्वमेघ यज्ञ के सिक्के जारी किये।

कुमारगुप्त ने चालीस वर्षों तक शासन किया। वह चन्द्रगुप्त का सबसे बड़ा पुत्र था, जबकि गोविन्दगुप्त उसका छोटा भाई था। इसके शासनकाल में शान्ति और सुव्यवस्था थी एवं साम्राज्य की उन्नति अपने चरमोत्कर्ष पर थी।

उस समय के अभिलेखों या मुद्राओं से पता चलता है कि उसने अनेक उपाधियाँ जैसे महेन्द्र कुमार, श्री महेन्द्र, श्री महेन्द्र सिंह, महेन्द्रा दिव्य आदि उपाधि धारण की थी। उसी के शासनकाल में नालन्दा विश्वविद्यालय की स्थापना की गई थी।

स्कन्दगुप्त (455-467)

455 में पुष्यमित्र के आक्रमण के समय ही गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम की मृत्यु होने पर उसका पुत्र स्कन्दगुप्त सिंहासन पर बैठा। स्कंदगुप्त गुप्तवंश का अंतिम महत्वपूर्ण शासक था। वह एक वीर और पराक्रमी योद्धा था।

इसके शासनकाल में हूणों (मलेच्छों) का आक्रमण हुआ, लेकिन उसने अपने पराक्रम से हूणों को पराजित कर साम्राज्य की प्रतिष्ठा स्थापित की। उसने सर्वप्रथम पुष्यमित्र को पराजित किया और उस पर विजय प्राप्त की।

स्कन्दगुप्त की प्रारम्भिक कठिनाइयों का फायदा उठाते हुए वाकाटक शासक नरेन्द्र सेन ने मालवा पर अधिकार कर लिया परन्तु स्कन्दगुप्त ने वाकाटक शासक नरेन्द्र सेन को पराजित कर दिया। उसने 12 वर्ष तक शासन किया।

स्कन्दगुप्त ने विक्रमादित्य, क्रमादित्य आदि उपाधियाँ धारण कीं। इसका शासन बड़ा उदार था जिसमें प्रजा पूर्णरूपेण सुखी और समृद्ध थी। स्कंदगुप्त एक योग्य सैन्य संचालक होने के साथ ही एक कुशल प्रशासक भी था।

466 ई. में चीनी सम्राट के दरबार में एक राजदूत भेजा, जो उसके मैत्रीपूर्ण संबंधों के बारे में बताता है। इसने सौ राजाओं के स्वामी की भी उपाधि धारण की।

स्कन्दगुप्त अपनी प्रजा से प्रेम करने वाला शासक था वो लगातार अपनी प्रजा के सुख-दुःख की चिन्ता करता रहता था। अभिलेख से ज्ञात होता है उसके शासन काल के दौरान भारी वर्षा के कारण सुदर्शन झील का बाँध टूट गया जिसे उसने अतुल धन का व्यय करके 2 माह के भीतर उस बाँध का पुनर्निर्माण करवा दिया।

स्कंदगुप्त की मृत्य सन् 467 में हुई। हंलांकि गुप्त वंश का अस्तित्व इसके 100 वर्षों बाद तक बना रहा पर यह धीरे धीरे कमजोर होता चला गया।

परवर्ती शासकों की कमजोरी का लाभ उठाकर एक ओर सामंतों ने सर उठाना शुरू किया, दूसरी ओर हूणों के आक्रमण ने गुप्तों की शक्ति को इतना कम कर दिया की स्कंदगुप्त के बाद गुप्त साम्राज्य को कायम नहीं रखा जा सका।

स्कन्दगुप्त के बाद इस साम्राज्य में निम्नलिखित प्रमुख राजा हुए:

  • पुरुगुप्त (467-473)
  • कुमारगुप्त द्वित्य (473-476)
  • बुधगुप्त (476-495)
  • नरसिम्हा गुप्ता (495)
  • कुमारगुप्त तृतीय

गुप्त वंश का पतन The Fall of The Gupta dynasty

5वीं शताब्दी के आसपास उत्तरी भारत में गुप्त वंश का पतन आरंभ हो गया था, गुप्त काल के समय के राज्य, छोटे-2 स्वतंत्र राज्यों में बंट गये व विदेशी हूणों का आक्रमण भी इसके पतन में एक महतवपूर्ण भूमिका निभाता है।

हूणों का नेता तोरामोरा था जो गुप्त साम्राज्य के बड़े हिस्से हड़पने में सफल रहा। उसका पुत्र मिहिराकुल बहुत निर्दय व बर्बर तथा सबसे तानाशाह व्यक्ति था। दो स्थानीय शक्तिशाली राजकुमारों मालवा के यशोधर्मन और मगध के बालादित्य ने उसकी शक्ति को कुचला तथा भारत में उसके साम्राज्य को समाप्त कर दिया ।

गुप्तकालीन मंदिरों की विशेषताएँ Features of Temples Made by Gupta Dynasty

गुप्त कालीन मंदिरों की अपनी ही अलग विशेषताएं थी जो निम्न है –

गुप्तकालीन मंदिरों को ऊँचे चबूतरों पर बनाया जाता था, जिनमें ईंट तथा पत्थर जैसी स्थायी सामाग्रियां प्रयोग में लायी जाती थीं । जिस पर चढ़ने के लिये चारों ओर से सीढि़याँ बनीं होती थी तथा मन्दिरों की छत सपाट होती थी।

आरंभिक गुप्तकालीन मंदिरों में शिखर नहीं होते थे। मन्दिरों का गर्भगृह बहुत साधारण होता था। गर्भगृह में देवताओं को स्थापित किया जाता था।

शुरुआती गुप्त मंदिरों में अलंकरण देखने को नहीं मिलता है, परन्तु बाद के स्तम्भों, मन्दिरो की दीवार चौखट आदि पर मूर्तियों द्वारा अलंकरण देखने को मिलता है।

विष्णु मंदिर नक्काशीदार है। इसके प्रवेश द्वार पर मकरवाहिनी गंगा, यमुना, शंख व पद्म की आकृतियाँ बनी हैं। कई मंदिरों में गुप्तकालीन स्थापत्य कला देखने को मिलती है, गुप्तकालीन मंदिरों की विषय-वस्तु रामायण, महाभारत और पुराणों से ली गई है।

प्रारंभिक मंदिरों की छतें चपटी होती थी, किन्तु आगे चलकर शिखर भी बनाये जाने लगे। मंदिर के वर्गाकार स्तंभों के शीर्षभाग पर चार सिंहों की मूर्तियां एक दूसरे से पीठ सटाये हुए बनाई गयी हैं।

गुप्तकाल के अधिकांश मंदिर पाषाण निर्मित हैं। केवल भीतरगाँव तथा सिरपुर के मंदिर ही ईंटों से बनाये गये हैं।

गुप्त काल के कुछ प्रमुख मंदिर इस प्रकार हैं –

साँची का मंदिर

सांची भारत के मध्य प्रदेश राज्य के रायसेन जिले, में बेतवा नदी के तट स्थित एक छोटा सा गांव है। यहां कई बौद्ध स्मारक हैं, जो तीसरी शताब्दी ई.पू. से बारहवीं शताब्दी के बीच के काल के हैं।

एरण का विष्णु मंदिर

मध्य प्रदेश के सागर जिले में एरण नामक स्थान पर गुप्त काल में विष्णु का एक मंदिर बना था, जो अब ध्वस्त हो चुका है। मंदिर के गर्भगृह का द्वार तथा उसके सामने खङे दो स्तंभ आज अवशिष्ट हैं।

देवगढ का दशावतार मंदिर

उत्तर प्रदेश के ललितपुर (प्राचीन झांसी) जिले में देवगढ नामक स्थान से यह मंदिर स्थित है। गुप्त काल के सभी मंदिरों में देवगढ का दशावतार मंदिर सर्वाधिक सुंदर है, जिसमें गुप्त मंदिरों की सभी विशेषतायें प्राप्त हो जाती हैं।

भीतरगांव का मंदिर

भीतरगांव का मंदिर उत्तर प्रदेश के कानपुर जिले में स्थित है। इस मंदिर का निर्माण ईंटों से किया गया है। मंदिर एक वर्गाकार चबूतरे पर बनाया गया

भूमरा का शिव मंदिर

मध्य प्रदेश के सतना जिले में भूमरा नामक स्थान से पाषाण निर्मित एक गर्भगृह प्राप्त हुआ। इसके प्रवेशद्वार पर गंगा-यमुना की आकृतियाँ बनी हुई हैं। इसके द्वार की चौखट भी अलंगरणों से सजायी गयी हैं। …अधिक जानकारी

निष्कर्ष Conclusion

गुप्त वंश के पतन के बाद भारतीय राजनीति में विकेन्द्रीकरण एवं अनिश्चितता का माहौल कायम हो गया था, अनेक स्थानीय सामन्तों एवं शासकों द्वारा अपने साम्राज्य विस्तार के लिए अलग-अलग एवं छोटे-छोटे राजवंशों की स्थापना कर ली।

आशा करते हैं गुप्त वंश का इतिहास (History of Gupta Dynasty in Hindi) से आपको इस साम्राज्य के विषय में जानकारी प्राप्त हो पाई।

Leave a Comment

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.