नारद मुनि की 5 कहानियां Narad Muni Stories in Hindi

दोस्तों आज हम आपको बताने वाले हैं नारद मुनि जी की कुछ बेहतरीन कहानियां (Narad Muni Stories) जिनसे हमें पता चलता है, कि कैसे नारद मुनि हमेशा तीनों लोकों में भ्रमण कर सूचनाओं का आदान-प्रदान करते थे। नारद मुनि का आदर सत्कार देवी-देवता, मुनि से लेकर असुरलोक के राजा समेत सारे राक्षसगण भी करते थे।

नारद मुनि के पिता ब्रह्राजी है और मान्यताओं के अनुसार नारद मुनि ब्रह्राजी की गोद से पैदा हुए थे। कहते है कि ब्रह्राजी का मानस पुत्र बनने के लिए उन्होंने पिछले जन्म में कड़ी तपस्या की थी। यह भी कहा जाता है, कि पूर्व जन्म में नारद मुनि गंधर्व कुल में पैदा हुए थे। उनके बारे में और जानने के लिए आज हम आपके सामने नारद मुनि की मुख्य 5 कहानियां लेकर आये है, तो शुरू करते है।

नारद मुनि जी की 5 अनसुनी कहानियां Amazing stories of Narad Muni

कहानी 1. जब नारद मुनि को अपने घमंड पर हुआ पश्चाताप

एक बार पृथ्वी का भ्रमण करते समय नारद मुनि को उनके एक खास भक्त ने याद किया, जो नगर का एक सेठ था। सेठ ने नारद जी का अच्छे से स्वागत सत्कार किया, एवं उनसे प्रार्थना की, कि आप ऐसा कोई आशीर्वाद दें, जिससे हमें एक बच्चा हो सके।

नारद ने सेठ से कहा कि तुम चिंता न करो, मैं अभी भगवान नारायण से मिलने जा रहा हूं। उन तक तुम्हारी प्रार्थना अवश्य पहुंचा दूँगा और वे अवश्य कुछ करेंगे। नारद भगवान नारायण से मिलने पहुंचे, और उन्हें सेठ की व्यथा बताई। भगवान‌ बोले कि उसके भाग्य में संतान सुख नहीं होने के कारण, कुछ नहीं हो सकता। उसके कुछ समय बाद नारद ने एक दीये में ऊपर तक तेल भरकर उसे अपनी हथेली पर रखकर पूरे विश्व की यात्रा की। अपनी यात्रा उन्होंने विष्णु धाम आकर ही पूरी की।

विश्व की यात्रा करके नारद को बहुत ही घमंड हो गया कि उनसे ज्यादा ध्यानी और विष्णु भक्त कोई और नहीं। अपने इसी घमंड के कारण नारद दोवारा पृथ्वी लोक पर आए और उसी सेठ के घर पहुंचे। वहां नारद ने देखा की सेठ के घर में चार छोटे-छोटे बच्चे घूम रहे है। नारद ने जानने के लिए सेठ से पूछा कि यह संतान किसकी हैं? तो सेठ बोले- आपकी हैं। नारद इस बात से खुश नहीं हुए और स्पष्ट बताने के लिए कहा। सेठ बोला- एक दिन एक साधु घर के सामने से निकल रहे थे, कह रहे थे कि “एक रोटी दो, तो एक बेटा और चार रोटी दो, तो चार बेटे”। मैंने उन्हें चार रोटी खिलाई। कुछ समय बाद मेरे चार पुत्र उत्पन्न हुए।

इस बात से नारद बहुत ही नाराज़ हुए और सीधे ही विष्णु के पास पहुंचे। नारद को देखते ही भगवान अत्यधिक पीड़ा से कराहने लगे, उन्होंने नारद को बोला- मेरे पेट में भयंकर रोग हो गया है, और जो व्यक्ति अपने हृदय से लहू निकाल कर मुझे देगा, उसी से मुझे आराम मिलेगा।

नारद ने पूरी दुनिया को विष्णु की व्यथा सुनाई, पर कोई भी व्यक्ति तैयार नहीं हुआ। जब नारद ने यही बात एक साधु को बताई तो वो बहुत खुश हुआ, उसने छुरा निकाला और अपने सीने में घोपने लगा और बोला- मेरे प्रभु की पीड़ा यदि मेरे लहू से ठीक होती है, तो मैं अभी तुम्हें लहू निकालकर देता हूं।

जैसे ही साधु ने लहू निकालने के लिए चाकू अपने सीने में घोपना चाहा, तभी भगवान् विष्णु प्रकट हो गये और बोले- जो व्यक्ति मेरे लिए अपनी जान दे सकता है, वह व्यक्ति किसी को चार पुत्र भी दे सकता है। साथ ही नारद से यह भी कहा कि तुम तो सर्वगुण संपन्न ऋषि हो। तुम चाहते तो उस सेठ को तुम भी पुत्र दे सकते थे। नारद को अपने घमंड पर बहुत पश्चाताप हुआ।

कहानी 2. प्रभु की माया

एक बार नारद जी ने बड़ी ही उत्सुकता पूर्वक भगवान विष्णु से पूछा “प्रभु आपकी माया क्या हैं? क्योंकि भू लोक पर सभी मनुष्य आपकी माया से प्रेरित होकर दुःख अथवा सुख भोगते है। लेकिन वास्तव में आपकी माया क्या हैं? विष्णु भगवान बोले, “नारद! यदि तुम्हें मेरी माया जाननी है, तो तुम्हें मेरे साथ पृथ्वी लोक चलना होगा। जहां मैं तुम्हें अपनी माया का प्रमाण दे सकूँगा।

नारद को अपनी माया दिखाने के लिए भगवान विष्णु नारद को लेकर एक विशाल रेगिस्तान से पृथ्वी लोक जा रहे थे, यहाँ दूर-दूर तक कोई मनुष्य तो क्या जीव-जंतु भी दिखाई नहीं पड़ रहा था। नारद जी विष्णु भगवान के पीछे-2 रेगिस्तान की गर्म रेत को पार करते हुए आगे बढ़ते रहे। चलते-2 नारद जी को मनुष्य की ही भांति गर्मी और भूख प्यास का एहसास होने लगा।

तभी कुछ दूरी पर उन्हें एक छोटी सी नदी दिखाई दी, नारद जी अपनी प्यास बुझाने के लिए उस नदी के पास पहुँच गये। तभी उन्हें कुछ दूरी पर एक सुंदर कन्या दिखाई दी। जिसके रूप को देखकर नारदमुनि उस कन्या पर मोहित हो गए, नारद जी ने उसके पास जाकर उससे वीरान जगह पर आने का कारण पूछा, कन्या ने बताया कि वह पास के ही एक नगर की राजकुमारी है और अपने कुछ सैनिकों के साथ रास्ता भटक गयी है।

नारद मुनि भी राजकुमारी के साथ उसके राज्य में पहुंच जाते हैं। राज कुमारी सब हाल अपने पिता को बताती है। राजा प्रसन्न होकर अपनी पुत्री का विवाह नारद जी से कर देते हैं और सारा राज पाठ नारदमुनि को सौंप कर स्वयं सन्यासी बन जाते है। अब नारद मुनि राजा के सामान पूरे ऐशोआराम से अपनी जिंदगी का यापन करने लगते है, नारद इन सब में यह भी भूल चुके थे कि वह प्रभु को नदी किनारे बैठा ही छोड़ आये।

समय बीतने के साथ नारद को उस राज कुमारी से दो संताने भी हो गयी। नारद मुनि अपने फलते-फूलते राज्य और पुत्रों को देखकर बहुत ही खुश थे। एक दिन उस राज्य में 3 दिन लगातार इतनी घनघोर वर्षा हुई की पूरे राज्य में बाढ़ आ गयी। सभी लोग अपनी सुरक्षा के उद्देश्य से इधर-उधर भागने लगे। नारद भी एक नाव में अपनी पत्नी और दोनों बच्चों को लेकर सुरक्षित स्थान की खोज में चल दिये।

बाढ़ इतना भयानक रूप ले चुकी थी कि राज्य से निकलते हुए नारद की पत्नी नाव से नीचे गिर गयी और तेज बहाव के साथ ही बह गयी। नारद शोक करते हुए। जैसे-तैसे राज्य से बाहर उसी नदी आ पहुंचे जहां नारद जी प्रभु के साथ अपनी प्यास बुझाने के लिए आये थे। नारद मुनि नदी के किनारे पर बैठकर शोक करते हुए जोर-जोर से रोने लगते है।

मेरे बच्चे, पत्नी सब कुछ तो नष्ट हो गया। अब मैं इस जीवन को जी कर क्या करूँगा। जैसे ही नारदमुनि नदी में कूद ने की कोशिश करते है तभी भगवान विष्णु उनका हाथ पकड़ लेते है, और कहते है, ठहरो नारद! ये ही तो थी मेरी माया। जो अब तक तुम्हारे साथ घटित हुआ वह सब मेरी ही माया थी। अब नारदमुनि भली- भांति समझ जाते है अब तक जो कुछ भी उनके साथ घटित हुआ वह सब कुछ केवल प्रभु की ही माया थी।

कहानी 3. जब देवता हुए नारद से परेशान तथा बंद किये सभी स्वर्ग के द्वार

एक बार सभी देवता नारद के बिना बुलाये कहीं भी बार-बार आ जाने को लेकर बहुत परेशान थे। उन्होंने निश्चय किया, वे सभी अपने द्वारपालों से कहकर नारद जी को किसी भी दशा में अंदर प्रवेश नही करने देंगे, और किसी न किसी बहाने से उन्हें टाल देंगे।

अगले दिन नारद जी भगवान शिव से मिलने कैलाश पर्वत पहुंचे, परन्तु नंदी ने उन्हें बाहर ही रोक दिया, और अंदर प्रवेश नही करने दिया, रोकने के कारण नारद ने आश्चर्यचकित होकर अंदर प्रवेश ना देने का कारण पूछा। इस पर नंदी ने कहा कि आप कहीं और जाकर अपनी वीणा बजाए, क्योंकि भगवान शंकर अभी ध्यान मुद्रा में है।

वे क्षीरसागर भगवान विष्णु से मिलने पहुंचे, वहां भी उन्हें पक्षिराज गरुड़ ने अंदर प्रवेश नही करने दिया। इस प्रकार नारद मुनि हर देवता के पास गए, परन्तु स्वर्ग में कहीं भी उनका स्वागत नही हुआ। इस घटना से बहुत परेशान होकर तथा देवताओं से अपने अपमान का बदला लेने के लिए उन्हें कोई मार्ग नही सूझ रहा था, इधर–उधर भड़कते हुए, एक दिन वे काशी पहुंच गये।

वहां वह एक प्रसिद्ध महात्मा से मिले, नारद जी ने उस महात्मा को अपनी समस्या बताई, महात्मा ने कहा मैं तो खुद देवताओं का एक दास हूँ, जो उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए हर समय उन्ही के ध्यान में लगा रहता हूँ। उसने कहा, मेरे पास तीन अदभुद पाषाण है, आप इन्हे रख लीजिये, और कहा हर एक पाषाण से आप की कोई भी एक मनोकामना पूर्ण होगी, लेकिन ऐसा कुछ मत करना, जिससे देवता प्रभावित हो।

नारद जी ने वे तीनों पाषाण महात्मा से लेकर अपनी झोली में रख लिए और उन्हें प्रणाम करके आगे चल दिए। मार्ग में उन्हें एक एक घर से रोने की आवाज़ सुनाई दी, वहां एक सेठ की मृत्यु हो गई है। नारद ने तुरंत अपने झोली से एक पाषाण निकाला तथा मनोकामना करके सेठ को जीवित कर दिया, और आगे बढ़ चले, तभी मार्ग में उन्हें एक कोढ़ के रोग से ग्रसित भिखारी दिखाई दिया, नारद जी ने दूसरे पाषाण के प्रभाव से उसे पूरी तरह से स्वस्थ कर लखपति बना दिया।

इसके बाद उन्होंने तीसरा पाषाण निकालकर कामना की कि उन्हें फिर से 3 सिद्ध पाषाण मिल जाए, उनके पास फिर से तीन सिद्ध पाषाण आ गए। इस तरह वे उन पाषाणों से उल्टे-सीधे कामना करने लगे और सृष्टि के चक्र में बाधा पहुँचाने लगे। जिस कारण सभी देवता परेशान हो गए।

देवतागण एक जगह फिर एकत्रित हुए, तथा उनमें से एक देवता बोले की हमने नारद जी के लिए स्वर्ग का द्वार बंद कर ठीक नही किया उन्हें चंचलता का श्राप है, इसलिए वे इधर उधर भटकते रहते है। तब देवताओं ने वरुण देव और वायु देव को नारद जी को ढ़ूँढ़ कर लाने का आदेश दिया।

बहुत खोजने के बाद अंत में एक दिन वरुण देव ने नारद जी को गंगा किनारे स्नान करते पाया। तभी नारद जी को उनकी वीणा के पास वायु देव और वरुण देव दिखाई पड़े, जो उन्हें देखकर हंस रहे थे। उनके पास जाकर नारद जी ने उनसे देव लोक के हाल चाल पूछे और उनके आने का कारण जाना, वरुण देव बोले नारद जी हम सभी देव आप के साथ किये गए व्यवहार से शर्मिंदा है और आपको पुनः स्वर्ग लोक ले जाने आये है। नारद जी ने अपना क्रोध भुलाकर वरुण देव और वायु देव के साथ स्वर्ग लोक की और प्रस्थान किया तथा वे तीनों पाषाण वही गंगा में प्रवाहित कर दिए।

कहानी 4. देवऋषि नारद क्यों रह गए अविवाहित?

जब भगवान ब्रह्मा सृष्टि का निर्माण कर रहे थे, तो उनके चार पुत्र हुए। और वे तपस्या पर निकल गए। इसके बाद बारी आई नारद मुनि की। नारद स्वभाव से चंचल थे। नारद मुनि से ब्रह्मा ने कहा, ‘तुम सृष्टि की रचना में मेरा सहयोग करो और विवाह कर लो। उन्होंने अपने पिता को मना कर दिया। अपनी अवेहलना सुनकर ब्रह्मा बहुत क्रोधित हो गए।

उन्होंने नारद को आजीवन अविवाहित रहने का श्राप देते हुए कहा, तुम जीवन में कई बार प्रेम का अनुभव करोगे, लेकिन तुम चाह कर भी कभी विवाह नहीं कर पाओगे। तुम जिम्मेदारियों से भागते हो इसलिए तुम्हें पूरी दुनिया में केवल भाग-दौड़ ही करनी पड़ेगी। इस तरह नारद को श्राप मिल गया और वो युगों-युगों तक एक लोक से दूसरे लोक में विचरण करते रहे।

राजा दक्ष ने दिया था भटकते रहने का श्राप

एक दूसरे श्राप की वजह से नारद जी को हमेशा इधर-उधर भटकते रहना पड़ा। मान्यता के अनुसार, राजा दक्ष की पत्नी आसक्ति ने 10 हजार पुत्रों को जन्म दिया था। सभी पुत्रों को नारद जी ने मोक्ष का पाठ पढ़ा दिया, जिससे उनका मन मोह-माया से दूर हो गया। फिर दक्ष ने पंचजनी से विवाह किया और उनके एक हजार पुत्र हुए। इन पुत्रों को भी नारद जी ने मोह माया से दूर रहना सीखा दिया। इस बात से क्रोधित होकर दक्ष ने नारद जी को श्राप दे दिया कि वे हमेशा इधर-उधर भटकते रहेंगे।

कहानी 5. नारद मुनि जब एक स्त्री के लिए हुए दीवाने

एक बार नारद को लगने लगा कि वह ब्रह्मचारी हैं, और काम वासना से मुक्त हैं, यह जानकर विष्णु जी को काफी अजीब लगा और इन्होंने नारद की परीक्षा लेने के लिए, अपनी माया से एक पूरा साम्राज्य खड़ा कर दिया और देवी लक्ष्मी जी को यहाँ की राज कुमारी बनाया और ऐलान किया कि यह इस राज्य के राजा की बेटी है और उसके विवाह के लिए स्वयंवर होना है।

इस राज कुमारी को देखकर नारद जी काम वासना से पागल हो गये, नारद जी अपने सारे व्रत और ब्रह्मचारी का प्रण भी भूल गये, अब नारद जी बस किसी भी हालत में इस राज कुमारी को पाना चाहते थे।

नारद जी एक सुन्दर सा चेहरा पाने के लिए विष्णु के पास गये और कहा कि वो उन्हें हरि जैसा चेहरा दें। वह विवाह करने जा रहे हैं। जब नारद स्वयंवर में गये तो महारानी ने नारद को देखा तक नहीं और माला एक गरीब इंसान के गले में डाल दी। यह गरीब और कोई नहीं था बल्कि खुद विष्णु थे। इस बात से नारद जी पूरी तरह से टूट गये, क्योंकि वो उस राजकुमारी पर बहुत ही फ़िदा थे।

नारद यही सोचते-विचारते जा रहे थे, तभी वह एक नदी में अपना चेहरा देखते हैं, नारद हैरान रह जाते हैं क्योंकि विष्णु ने उनको वानर रूप दिया था। असल में हरि का एक अर्थ वानर भी होता है। इस बात से नाराज़ नारद ने विष्णु को श्राप दिया कि आप भी मनुष्य रूप में पृथ्वी पर जाओगे और वहां पर स्त्री के लिए ऐसी ही बैचेन रहोगे, जैसे कि मैं आज स्त्री के लिए तड़प रहा हूँ।

कहा जाता है कि भगवान राम और सीता के बीच, जो वियोग हुआ था, वह इसी श्राप का नतीजा था। इस तरह से नारद मुनि को यह पता चल गया था, कि किसी भी व्यक्ति को ब्रह्मचारी होने पर घमंड नही करना चाहिए।

Featured Image – (Wikipedia)

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