अरविन्द घोष का जीवन परिचय Sri Aurobindo Ghosh Biography in Hindi

इस लेख में (अरबिंदो घोष) अरविन्द घोष का जीवन परिचय (Sri Aurobindo Ghosh Biography in Hindi) हिन्दी में तथ्यों के साथ दिया है। अपने जीवन के प्रारंभिक चरण में वे एक प्रभावशाली नेता थे जो बाद में एक महान अध्यात्मिक समाज सुधारक के रूप में उभरे।

The Life Divine और The Integral Yoga नामक जैसे किताब में भी आप श्री अरविंद और उनकी शिक्षाओं के बारे में विस्तार से जान सकते हैं लेकिन अगर आपने वह किताब नहीं पढ़ी है तो कोई बात नहीं। इस लेख को पढने के बाद आप अरबिंदो घोष के जीवन के बारे में गहराई से जान पाएंगे।

आईये शुरू करते हैं – अरविन्द घोष का जीवन परिचय

प्रारंभिक जीवन और शिक्षा Early Life and Education

अरविन्द घोष का जन्म 15 अगस्त 1872 के दिन, कलकत्ता, भारत में हुआ था। पिता कृष्ण धनु घोष एक डॉक्टर थे और उनकी माता स्वर्णलता देवी एक कुशल गृहणी और बेहद धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं। उनके पिताजी भारतीय संस्कृति को अधिक पसंद नहीं करते थे और इसाई धर्म को अधिक तवज्जो देते थे इसलिए उन्होने अपने बच्चों को अंग्रेजी कान्वेंट स्कूल में डाल रखा था।

उनके नाना श्री राज नारायण बोस बंगाली साहित्य के जाने माने प्रखर व्यक्ति थे उनकी कृतियाँ आज भी अद्वितीय है। 1879 में अरविन्द घोष और उनके भाई को अपनी पढाई पूरी करने के लिए इंग्लैंड भेज दिया गया और मात्र अठारह वर्ष की उम्र में उन्हें कैंब्रिज में दाखिला मिल गया।

पिता के आज्ञानुसार वे कैम्ब्रिज में रहते हुए आईसीएस के लिए आवेदन दिया और वे उसमें उत्तीर्ण भी हो गए लेकिन घुड़सवारी के एक परीक्षा में वे असफल रहे इसलिए उन्हें भारत सरकार की सिविल सेवा में प्रवेश की अनुमति नहीं मिली।

कार्य और पदोन्नति Major Works

सन 1893 में अरविन्द घोष भारत लौट आये और बडौदा (वर्तमान बरोडा) के एक विश्व-विद्यालय में उप-प्रधानाचार्य के पद पर नियुक्त हो गए उन्होंने 750 रुपये हर महीने के वेतन पर कार्य करना प्रारंभ कर दिया।

1893 से 1906 तक वे उस पद पर आसीन रहें और इमानदारी और लगन से अपना कार्य करते रहे इसी बिच संस्कृत, बंगाली साहित्य, दर्शनशास्त्र और राजनीति विज्ञान का ज्ञान अर्जन किया, जिससे प्रभावित होकर बड़ौदा के महाराजा उन्हें बेहद पसंद करने लगे।

लेकिन 1906 के बंगाल विभाजन के बाद उन्होंने नौकरी त्याग दी और बंगाल चले गए और एक सौ पचास रुपये के तनख्वाह पर बंगाल नेशनल कॉलेज में कार्य सँभालने लगे। नौकरी तो मात्र एक जरिया था उनके मन में तो आज़ादी की ज्वाला जल उठी थी।

स्वतंत्रता संग्राम में योगदान Contribution in freedom fight

1908 से भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अरविन्द घोष ने एक प्रमुख भूमिका निभाई। अरविंद घोष भारत की राजनीति को जागृति करने वाले मार्गदर्शकों में से एक थे। उन्होंने अंग्रेजी दैनिक ‘वन्दे मातरम’ पत्रिका का प्रकाशन किया। उसमे उन्होंने बिना डरे खुले में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ तीक्ष्ण सम्पादकीय लेख लिखे।

अरविन्द जी ने ब्रिटिश सामान, ब्रिटिश न्यायलय और अन्य अंग्रेजी चीजों के बहिष्कार का खुला समर्थन भी किया। उन्होंने लोगों से सत्याग्रह के लिए तैयार रहने के लिए कहा जिससे बंगाल के नवयुवकों में एक आग जल उठी और वे अंग्रेजी हुकूमत को उखाड़ फेकने के लिए आतुर हो गए।

अलीपुर बम केस अरविंद घोष एक वर्ष के लिए अलीपुर सेंट्रल जेल में डाल दिया गया। उसके बाद सुनवाई के समय चित्तरंजन दास ने श्री अरविन्द घोष का बचाव किया और एक यादगार सुनवाई के बाद उन्हें बरी कर दिया गया।

अध्यात्म के प्रति आकर्षण Attraction to spirituality

एक बार जब वे अलीपुर जेल की एक गंदे सेल में बंद थे तब उन्होंने एक स्वप्न देखा जिसमे उनसे भगवान कह रहे हैं की आज़ादी के लिए स्थूल से ज्यादा सूक्ष्म कार्य करने की आवश्यकता है क्योंकि यह समय बदलाव का है और तुम्हे साधना करके भारत को सूक्ष्म रूप से शक्तिशाली बनाना होगा।

वह माहौल बनाना होगा जिसमे पवित्र आत्माएं भी धरती पे आयें और इस संघर्ष में आहुति दें  ! और भगवान ने उन्हें एक दिव्य मिशन पर जाने का आदेश दिया। उन्होंने क़ैद की इस अवधि का उपयोग गीता की शिक्षाओं का गहन अध्ययन और अभ्यास के लिए किया। जेल से निकलने के बाद वे पांडिचेरी में चार साल तक योग पर अपना ध्यान केंद्रित करने के बाद वर्ष 1914 में श्री आर्य नामक मासिक पत्रिका की शुरुवात की।

अरविन्द घोष की रचनाएँ Compositions by Aurovindo Ghosh

अगले साढ़े 6 सालों तक यह उनकी सबसे महत्वपूर्ण रचनाओं में से ज्यादातर के लिए एक माध्यम बन गया जो कि एक धारावाहिक के रूप में आयीं। नमे गीता का वर्णन, वेदों का रहस्य, उपनिषद, द रेनेसां इन इंडिया, वार एंड सेल्फ डिटरमिनेसन, द ह्यूमन साइकिल, द आइडियल ऑफ़ ह्यूमन यूनिटी और द फ्यूचर पोएट्री शामिल थीं। 1926 में श्री अरविन्द सार्वजनिक जीवन से सेवानिवृत्त हो गए।

आध्यात्मिक शक्तियों और मानसिक सूक्ष्म शक्तियों से उन्होंने ऐसे माहौल का निर्माण किया जिसमे युवा, बुजुर्ग, बच्चें या महिलाएं सभी आज़ादी के लिए स्वयं का बलिदान देने आगे आने लगे। दिनों दिन लोगों के शहीद होने की खबरे आने लगी चाहे वह चंद्रशेखर आज़ाद हों या भगत सिंह ऐसे ऐसी हुतात्मएं आगे आईं की अंग्रेजी हुकूमत को अंततः उखड़ना पड़ा।

उप्लाब्धियाँ Achievements

अरविन्द घोष ने कभी भी सांसारिक उपलब्धियों को तवज्जो नहीं दी। उन्हें 1943 में साहित्य के नोबल पुरूस्कार के लिए नामांकित किया गया, जबकि 1950 में उनके कविताओं में दिए योगदान, आध्यात्मिक और दार्शनिक साहित्य के लिए उनका नाम शामिल किया गया। उन्हें साहित्य में बटरवर्थ पुरूस्कार और इतिहास में दिए योगदान के लिए बेडफोर्ड पुरूस्कार भी दिया गया था।

अरविन्द घोष का आजीवन यही मानना था की मानव से ज्यादा ताक़तवर उसका मष्तिष्क होता है और मष्तिष्क से भी हज़ार गुना ज्यादा आत्मा की ताक़त होती है जिसने स्वयं को जान लिया उसे फिर कुछ जानने की आवश्यकता नहीं बचती।

मृत्यु Death

5 दिसंबर 1950 को अरविन्द घोष शरीर त्याग कर सम्पूर्णता में विलीन हो गए जिसके बाद भारतीय तत्वदर्शियों ने उन्होंने महर्षि की उपमा दी और वे महर्षि अरविन्द (Sri Aurobindo) कहलायें।

अरबिंदो घोष के अनुसार मृत्यु नामक कोई चीज़ नहीं होती क्योंकि जिसने खुदको शरीर मान रखा है वह तो आत्मा के द्वारा धारण किया गया वस्त्र भर है और आत्मा कभी नहीं मरती। आशा करते हैं आपको अरविन्द घोष का जीवन परिचय Sri Aurobindo Ghosh Biography in Hindi पसंद आया होगा।

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