स्वामी दयानंद सरस्वती जीवनी Swami Dayananda Saraswati Biography Hindi
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स्वामी दयानंद सरस्वती एक समाज सुधारक और व्यावहारिकता में विश्वास रखने वाले व्यक्ति थे। उन्होंने हिन्दू धर्म के कई अनुष्ठानो के खिलाफ प्रचार किया। उन अनुष्ठानो के खिलाफ प्रचार करने के कुछ मुख्य कारण थे – मूर्ति पूजा, जाति भेदभाव, पशु बलि, और महिलाओं को वेदों को पढने की अनुमति ना देना।
वो ना सिर्फ एक महान विद्वान और दार्शनिक थे बल्कि वो एक महान समाज सुधारक और राजनीतिक विचार धरा के व्यक्ति थे। स्वामी दयानद सरस्वती जी के उच्च विचारों और कोशिश के कारण ही भारतीय शिक्षा प्रणाली का पुनरुद्धार हुआ जिसमें एक ही छत के नीचे विभिन्न स्तर और जाति के छात्रों को लाया गया जिसे आज हम कक्षा के नाम से जानते हैं।
स्वामी दयानद सरस्वती जी ने आर्य समाज की स्थापना की थी और उन्हें आधुनिक समाज के निर्माताओं में से एक माना जाता है। एक स्वदेशी रुख अपना कर उन्होंने हमेशा एक नया समाज, धर्म, आर्थिक और राजनीतिक दौर का शुरुवात किया।
वेदों से अच्छी विचारधारा और प्रेरणा लेकर उन्होंने समाज के कई बुरी प्रथाओं को दूर करने का प्रचार शुरू किया था।
स्वामी दयानंद सरस्वती जीवनी Swami Dayananda Saraswati Biography Hindi
प्रारंभिक जीवन Early Life
स्वामी दयानद सरस्वती जी का जन्म, 12 फरवरी सन 1824 मूलशंकर नाम से एक रुढ़िवादी ब्राह्मण परिवार में पिता करशनजी लालजी तिवारी और माँ यशोदाबाई के घर में मोरबी (मुम्बई की मोरवी रियासत) के पास काठियावाड़ क्षेत्र (जिला राजकोट), गुजरात में हुआ था।
उनके पिता शिव जी के बहुत बड़े भक्त थे और उनके पिता ने दयानद जी को यह भी बताया था की उपवास रखने के फायदे क्या हैं इसलिए दयानंद जी सभी शिवरात्रि को उपवास रखते थे और पूरी रात शिव पूजा में सम्मिलित रहते थे।
1846 में अपने घर से भाग गए ताकि उनका विवाह बली काल में ना कराया जा सके और उन्होंने अपना जीवन कई साल तक 1846-1869 तपस्वी के रूप में धर्म के सत्य को ढून्ढते हुए भटकते रहे।
22 अक्टूबर 1869 को वाराणसी, में स्वामी दयान्द जी ने एक 27 विद्वानो और 12 पंडित विशेषज्ञों के खिलाफ एक बहस में जित हासिल किया। इस बहस को देखने 50,000 से भी ज्यादा लोग देखने आये थे।
स्वामी दयान्द जी ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अपने परिवार में ली और वो एक महान वैदिक विद्वान के रूप में उभरे। उन्होंने सांसारिक जीवन को त्यागा और उन्होंने भारत के कई क्षेत्रों में भ्रमण किया और सच्चाई और ज्ञान का बांटा।
बाद में उनकी मुलाकात मथुरा में स्वामी विरजानंद दंदीषा से हुई और वो उनके शिष्य बन गए। उनसे शिक्षा प्राप्त करने के बाद वो पुरे भारत भर में हिन्दू धर्म और इसके संस्कृति को फ़ैलाने के मिशन में निकल पड़े।
इस दृढ़ संकल्प, लक्ष्य और प्रेरणा के साथ उन्होंने 10 अप्रैल, 1875 को बॉम्बे, में आर्य समाज की शुरुवात की थी और धीरे-धीरे उन्होंने भारत में जगह-जगह अपने आर्य समाज के शाखा शुरू किये। आर्य समाज की स्थापना के समय कुल 28 नियम लागु किये गए। स्वामी दयानद सरस्वती एक लेखक भी थे।
लिखित कुछ किताबें Books Written by Swami Dayanand Saraswati
- सत्यार्थ प्रकाश Satyarth Prakash
- वेदंगा प्रकाश Vedanga Prakash
- रत्नमाला Ratnamala
- संकर्विधि Sankarvidhi
- भारत्निर्वान Bharatinivarna
दयानंद सरस्वती द्वारा धार्मिक सुधार Religious Reforms by Swami Dayanand Saraswati
आर्य समाज ने हिन्दू धर्म की मुक्ति पर बल दिया। स्वामी दयानंद सरस्वती ने दावा किया कि केवल वेद ही ज्ञान का सही खजाना है और केवल एक ही धर्म है और वो है वेदों का धर्म।
उन्होंने यह भी कहा था कि अर्थशास्त्र, राजनीति, सामाजिक विज्ञान, और मानविकी के सिद्धांत वेदों में है। उनका आह्वान था – वेदों के ज्ञान को दोबारा लाकर लोगों के जीवन में चेतना जगाना।
उन्होंने कई धार्मिक पुराणों और शास्त्रों को खारीच कर दिया और मूर्ति पूजन, कर्मकाण्ड, पशु-बलि की प्रथा, बहुदेववाद की अवधारणा, स्वर्ग और नरक और भाग्यवाद के विचारों को गलत बताया।
आर्य समाज ने हिन्दू धर्म को सरल बनाने में अहम् भूमिका निभाया और हिन्दुओं को अपने गौरवशील विरासत के प्रति जागरूक बनाया। सबसे अहम् बात उन्होंने बैदिक मूल्यों को ही सबसे बेहतर बताया।
स्वामी दयानंद सरस्वती ने यह भी कहा की हिन्दुओं को ईसाई, इस्लाम या पश्चिमी संस्कृति की और नहीं देखना चाहिए।
दयानंद सरस्वती – शुद्धि आंदोलन Dayanand Saraswati – Shuddhi Movement
हिन्दू धर्म की श्रेष्टता पर बल देते हुए, आर्य समाज (स्वामी दयानंद सरस्वती) ने शुद्धि आन्दोलन की शुरुवात की जिसका मुख्य उद्देश्य था अन्य धर्मों के लोगों को हिन्दू धर्म अपनाने के लिए प्रेरित करना और हिन्दू धर्म से अन्य धर्मों में गए लोगों को भी वापस हिन्दू धर्म में लाना।
यह आन्दोलन अभूत ही प्रभावी रूप से सफल हुआ और इसकी वजह से निम्न जाति का इसाई धर्म या मुस्लिम धर्म अपनाना बंद हो गया। शुद्धि आन्दोलन ने हिन्दू अशिक्षित, गरीब और दलित वर्गों के लोगों के जाती को बदलने वालों को कडा चुनौती दिया।
सामाजिक सुधार Social Reforms by Swami Dayanand Saraswati
कई सामाजिक बुराइयों का विरोध करने के साथ-साथ आर्य समाज ने हिन्दू समाज के लोगों के लिए कई सेवाएं प्रदान की। उन्होंने जाति व्यवस्था और समाज में ब्राह्मणों की श्रेष्टता का विरोध किया।
उन्होंने ब्राह्मणों को एकाधिकार का चुनौती दिया और उन्हें वेदों को पढने की सलाह दी साथ ही उन्हें जाति, धर्म, रंग और छुआ छूत के बिना लोगों को समर्थन देने की सलाह दी।
वो महिलाओं के साथ अन्याय के खिलाफ लड़े और मालाओं की शिक्षा पर उन्होंने ज़ोर दिया। दयानंद सरस्वती जी ने बाल विवाह, और सती प्रथा का भी घोर विरोध किया।
आर्य समाज ने कई शैक्षणिक संसथान शुरू किया जैसे – गुरुकुल, कन्या गुरुकुल, स्कूल, और कॉलेज जिससे पुरुष और महिलाओं को शिक्षित बनाया जा सके। इन शैक्षणिक संसथानो ने हिन्दू धर्म और समाज की रक्षा भी की और आधुनिक युग में ज्ञान को बढाने के क्षेत्र में भी बहुत कार्य किया।
आर्य समाज कभी भी राजनीति से नहीं जुड़ा और इस समाज ने हमेशा राष्ट्रिय चेतना पर ध्यान दिया। स्वामी दयानंद सरस्वती ने हमेशा विदेशी वस्तुओं को नकारा और स्वदेशी यानि की भारत में बने उत्पदों का उपयोग करने की बात भी लोगों से कही।
उन्होंने वेदों के सिधान्तों पर “स्वराज” का नारा भी सबसे पहले उठाया जब किसी भारतीय नेता ने इसके विषय में सोचा भी नहीं था।
मृत्यु कैसे हुई Swami Dayanand Saraswati Death Story in Hindi
सन 1883 में स्वामी दयानंद सरस्वती को जोधपुर के महाराज नव दीपावली पर न्योता दिया। महाराज उनके शिष्य बनना चाहते थे और उनसे शिक्षा भी लेना चाहते थे।
एक दिन दयानंद सरस्वती जी महाराज के विश्राम गृह में गए। उन्होंने वहां देखा कि महाराज एक नाचने वाली महिला – नन्ही जान के साथ पाए गए। दयानंद जी महाराज को महिला के अनैतिक कार्यों से दूर रहने के लिए कहा।
इस बात से उस महिला को बहुत बुरा लगा और उसने दयानंद जी से बदला लेने का सोचा। उसने दयानंद जी के लिए खाना बनाने वाले रसौइए को घुस दिया और ददूध के गिलास में कांच के टुकड़े मिला दिया।
दयानंद जी को 29 सितम्बर 1883 को वह दूध पीने के लिए दिया गया। दूध पीते ही स्वामी दयानंद सरस्वती के मुख से खून निकलने लगा। जब महाराज को यह बात पता चला तो उन्होंने बहुत कोशिश किया डॉक्टरों को भी बुलाया परन्तु दिन ब दिन उनकी हालत और ख़राब होती गयी। 30 अक्टूबर 1883 को मन्त्रों का जप करते हुए उनकी मृत्यु होगई।