महर्षि विश्वामित्र की कहानियाँ Vishwamitra Story in Hindi

इस लेख में महर्षि विश्वामित्र की कहानियाँ (Vishwamitra Story in Hindi) व इतिहास सरल भाषा में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। विश्वामित्र के जीवन की कथा पुराणों की कुछ बेहतरीन कथाओं में से एक मानी जाती है। 

गुरु विश्वामित्र के जीवन से त्याग, तपस्या और ऋषि-धर्म के उदाहरण मिलते हैं। चाहे वह श्री राम जैसे सम्राट का गुरु बनना हो या तप द्वारा देवताओं में हाहाकार मचाना हो, उनके जीवन की प्रखरता सर्वविदित है। 

महर्षि विश्वामित्र की कथा व इतिहास Vishwamitra Story in Hindi

विश्वामित्र का पूर्व नाम राजा कौशिक था जो एक महान, प्रतापी, तेजस्वी तथा प्रजावत्सल राजा थे। धर्म ग्रंथ और कई पौराणिक ग्रंथों के आधार पर बताया जाता है, कि कुशिक वंशीय प्रजापति के पुत्र कुश थे और कुश के पुत्र कुशनाभ थे, इन्ही कुशनाभ के पुत्र थे राजा गाधि, जो बड़े ही पराक्रमी, शूरवीर और प्रजापालक राजा थे।

राजा गाधि के पुत्र हुए विश्वामित्र जो सौ पुत्रों के पिता और एक शक्तिशाली राजा थे। इसलिए गुरु विश्वामित्र ब्राह्मणत्व प्राप्त करने से पहले एक क्षत्रिय राजा थे।

गुरु विश्वामित्र ने कई सालों तक सफलतापूर्वक राज किया और वे उस समय के सर्वश्रेष्ठ राजाओं में गिने जाते थे। महर्षि विश्वामित्र एक पराक्रमी, शक्तिशाली और महान तपस्वी भी थे। क्योंकि गुरु विश्वामित्र ने अपने पुरुषार्थ और  तपस्या के बल पर ही क्षत्रियत्व को त्याग कर ब्राह्मणत्व प्राप्त किया और राजर्षि से महर्षि बने।

इस प्रकार विश्वामित्र सभी देवी- देवताओं और ऋषियों के भी पूज्य बन गए और उनकी तपस्या के बल पर ही उन्हें सप्तर्षियों में महान स्थान प्राप्त हुआ।

विश्वामित्र किसके पुत्र थे? Whose Son Was Vishwamitra?

गुरु विश्वामित्र कुशिक वंशीय महाराज गाधि (कुशाश्व) के पुत्र थे और इनकी माता राजा पुरुकुत्स की कन्या थी। विश्वामित्र का जन्म उनकी बहन सत्यवती के पति महान ऋषि ऋषीक के वरदान स्वरूप हुआ था। कहा जाता है की ऋषि ऋषिक का बोला हुआ कभी खाली नहीं जाता था।

विश्वामित्र का जन्म कब हुआ था? When Was Vishwamitra Born?

विश्वामित्र का जन्म कार्तिक शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को उनकी बहन सत्यवती के पति महान ऋषि ऋषीक के वरदान के फलस्वरूप हुआ था यधपि विश्वामित्र ने क्षत्रिय कुल में जन्म लिया था, फिर भी अपने पुरुषार्थ और तप के प्रभाव के कारण ब्रम्हदेव से ब्राह्मणत्व की उपाधि प्राप्त की तथा महर्षि वशिष्ठ ने भी विश्वामित्र को ब्राह्मण और महर्षि स्वीकार किया।

विश्वामित्र महर्षि कैसे बने? How Did Vishwamitra Become Maharishi?

ब्राह्मणत्व प्राप्त करने के लिए गुरु विश्वामित्र ने कठोर तपस्या की, किन्तु गुरु विश्वामित्र की तपस्या को भंग करने के लिए देवों द्वारा कई प्रकार के विध्न डाले गए, लेकिन गुरु विश्वामित्र ने बिना क्रोध किए उन सब का निवारण किया और अपनी तपस्या में लीन रहे।

एक बार गुरु विश्वामित्र तपस्या समाप्त करने के पश्चात भोजन करने के लिए बैठे ही थे, कि एक भिक्षुक याचक के रूप में उनके पास आया और उनसे भोजन की याचना करने लगा। यह भिक्षुक कोई और नहीं बल्कि स्वयं देवराज इंद्र थे।

गुरु विश्वामित्र ने उन्हें अपना सारा भोजन दे दिया और सोचा शायद अभी उनकी तपस्या की अवधि पूर्ण नही हुई है इसलिए ईश्वर ने इस याचक को मेरे पास पहुँचा दिया है। इसके पश्चात उन्होंने प्राणायाम करके और श्वांस रोककर कठोर तपस्या करना प्रारम्भ कर दिया। उनकी इस तपस्या से सारा ब्रह्मांड थर्रा उठा। तपस्या के फल से उनका तेज चारों दिशाओं में प्रकाशित हो रहा था।

यह सब देखकर देवताओं ने ब्रह्मा जी से विनती की, हे ब्रम्हदेव! गुरु विश्वामित्र अब क्रोध और मोह की सीमा से परे हैं और तपस्या की पराकाष्ठा को भी पार कर चुके हैं। उनकी तपस्या के तेज से स्वयं सूर्य और चंद्रमा धुंधले पड़ गए हैं अब आपको उनकी इच्छा पूरी कर देनी चाहिए।

देवताओं की विनती सुनकर बह्मा जी ने विश्वामित्र को ब्राह्मण की उपाधि प्रदान कर दी किन्तु विश्वामित्र ब्रह्मा जी से बोले हे ब्रह्मदेव! मैं अपने आपको ब्राह्मण तभी मानूंगा जब महर्षि वशिष्ठ मुझे ब्राह्मण और महर्षि समझेंगे।

विश्वामित्र की यह बात सुनकर सभी देवता वशिष्ठ जी के पास गए और उन्हें सारी कहानी सुना कर उनसे आग्रह किया। तब वशिष्ठ जी ने विश्वामित्र को गले से लगाया और कहा वास्तव में आप ब्रह्मर्षि है आज मैं आपको ब्राह्मण स्वीकार करता हूं।

विश्वामित्र और मेनका की कहानी Vishwamitra and Menaka Love Story in Hindi

जब महर्षि विश्वामित्र वन में कठोर तपस्या में लीन थे और बाहरी दुनियां का उन्हें आभास भी नहीं था तथा उनकी तपस्या चरम सीमा पर थी। तब देवराज इन्द्र को भय लगने लगा की कही विश्वामित्र जी उनके सिंहासन को प्राप्त न कर लें। जिसके परिणामस्वरूप देवराज इंद्र ने मेनका नामक अप्सरा को धरती पर जाकर महर्षि विश्वामित्र की तपस्या भंग करने का आदेश दिया।

महर्षि विश्वामित्र ने काम को पूरी तरह वश में कर लिया था इसलिए मेनका के सौंदर्य का उनपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। किन्तु कामदेव की मदद से मेनका विश्वामित्र की तपस्या भंग करने में सफल हो गईं लेकिन दोंनो के ह्रदय में प्रेम के अंकुर फूटने लगे। बाद में दोंनो विवाह बंधन में बंध कर गृहस्थ आश्रम में रहने लगे।

मेनका ने सोचा अगर में अब यहाँ से जाती हुँ तो महर्षि फिर से तपस्या करने लगेंगे इस कारण मेनका महर्षि के साथ गृहस्थ जीवन व्यतीत करने लगी और कुछ समय बाद मेनका ने एक सुन्दर पुत्री को जन्म दिया जिसका नाम शकुंतला रखा।

वे तीनों ख़ुशी-ख़ुशी जीवन व्यतीत कर रहें थे की एक दिन देवराज इन्द्र मेनका के सामने प्रकट हुये और उन्हें फिर से देवलोक में वापस आने का आदेश दिया। उनका आदेश मानकर ना चाहते हुये मेनका महर्षि विश्वामित्र तथा पुत्री शकुंतला को छोड़कर देवलोक चली गयी।

विश्वामित्र तथा गुरु वशिष्ठ कथा Vishwamitra and Vashishta Story in Hindi

महर्षि बनने से पूर्व विश्वामित्र राजा हुआ करते थे जिनका नाम था राजा कौशिक। राजा कौशिक बड़े ही पराक्रमी और प्रजावत्सल राजा थे, जो अपनी प्रजा का संरक्षण और प्रजा की खुशहाली के लिए हर संभव कार्य करते थे।

एक दिन कौशिक पृथ्वी भ्रमण करने के लिए अपनी सेना के साथ निकले और एक जंगल में पहुंचे। जहां पर महर्षि वशिष्ठ का आश्रम था। महर्षि वशिष्ठ यज्ञ कार्य में व्यस्त थे तो राजा कौशिक प्रणाम करके वहाँ बैठ गए। यज्ञ संपन्न करने के बाद महर्षि ने राजा कौशिक का आदर सत्कार किया तथा कुछ दिनों तक रहकर उनका आतिथ्य स्वीकार करने के लिए आग्रह किया।

पहले तो अपनी विशाल सेना देखकर राजा कौशिक संकोच करने लगे लेकिन महर्षि वशिष्ठ के बार-बार आग्रह करने पर राजा कौशिक कुछ दिनों के लिए वहां पर ठहर गए। जब महर्षि विशिष्ठ ने सभी का आदर सत्कार बड़ी अच्छे तरीके से किया तो राजा कौशिक बड़े प्रभावित हुये और  बोले – हे महर्षि! आपने हमारी इतनी बड़ी सेना का आदर सत्कार  किया उन्हें भोजन कराया उसके लिए मैं आपका आभारी हुँ।

लेकिन मैं यह जानना चाहता हूं, कि आपने इतनी बड़ी सेना का आदर सत्कार कैसे किया? उन्हें कैसे खाना खिलाया? महर्षि वशिष्ठ बोले – हे राजन! मेरे पास कामधेनु गाय की पुत्री नंदनी है जो स्वयं मुझे भगवान इंद्रदेव ने दी थी। उसी कामधेनु नंदनी द्वारा आप सभी का आहार प्राप्त हुआ है।

यह बात सुनकर महाराज कौशिक के मन में उस गाय को प्राप्त करने की लालसा जागृत हो गई और उन्होंने महर्षि से कहा – हे महर्षि! आप इस गाय का क्या करेंगे? इस गाय को तो राजा, महाराजाओं के पास होना चाहिए। कृपया करके आप मुझे इस गाय को दे दीजिये, हम आपको स्वर्ण मुद्राओं से तौल देंगे। 

लेकिन महर्षि वशिष्ठ ने साफ मना कर दिया, उन्होंने कहा कि यह मेरी गाय है तथा यह मुझे मेरे प्राणों से भी प्रिय है तथा अनमोल है। मैं इसे अपने से अलग नहीं कर सकता। इतना सुनते ही राजा कौशिक को अपना अपमान महसूस हुआ और उन्होंने अपनी सेना को आज्ञा दी कि इस गाय को ज़बरदस्ती हाँक ले चलो।

उसकी सेना के सैनिक गाय को मारने पीटने लगे तो गाय रोने लगी और महर्षि से से बोली – हे महर्षि! मेरी रक्षा कीजिए। महर्षि बोले में स्वयं ही विवश हुँ एक तो यह राजा मेरे आतिथ्य में हैं और दूसरा हम इसके राज्य में रहते है इसलिए मैं इस पर हाथ नहीं उठा सकता हुँ।

इसके पश्चात गाय ने कहा ठीक है, मैं स्वयं ही अपनी रक्षा करती हुँ और गाय ने राजा कौशिक से भी बड़ी सेना प्रकट कर दी देखते ही देखते राजा कौशिक की सेना को परास्त कर दिया और राजा को बंदी बनाकर महर्षि के सामने पेश कर दिया।

बंदी बनने के उपरांत भी राजा कौशिक ने महर्षि पर आक्रमण कर दिया यह सब देख महर्षि बड़े ही रुष्ट हुये और उन्होंने राजा के एक पुत्र को छोड़कर सभी पुत्रों को श्राप दे दिया और सभी पुत्र वहीं जलकर भस्म हो गए।

राजा कौशिक पश्चाताप की अग्नि में जलने लगे और अपना राजपाट अपने पुत्र को सौंपकर गहन तपस्या में लीन हो गए। उन्होंने कठोर तपस्या करके सभी प्रकार के अस्त्र-शस्त्र प्राप्त करने के पश्चात महर्षि पर फिर से आक्रमण कर दिया। इस बार भी महर्षि ने राजा कौशिक के सभी अस्त्र-शस्त्र काट दिए दोंनो महर्षियों ने इस युद्ध में अपने पुत्रों को खो दिया और महर्षि विश्वामित्र को आभास हो गया की क्षत्रियत्व से ब्राह्मणत्व श्रेष्ठ है और फिर तपस्या में लीन हो गए।

ऋषि विश्वामित्र का रामायण में योगदान Sage Vishwamitra in Ramayana Story

गुरु विश्वामित्र द्वारा जब ब्राह्मणत्व प्राप्त कर लिया गया तो उन्होंने अस्त्र शस्त्रों का त्याग कर दिया और वन प्रदेश में अपने अनुयायियों के साथ यज्ञ करने और प्रभु की भक्ति में लीन रहने लगे। 

किन्तु कुछ राक्षस यज्ञ स्थल पर पहुँच कर यज्ञ भंग करते तथा ऋषि मुनियो को मारकर खा जाते थे। ये सब देखकर महर्षि को बहुत दुख होता था जबकि गुरु विश्वामित्र उन राक्षसों का सामना करने में समर्थ थे किंतु अस्त्र-शस्त्र त्यागने के कारण विवश थे।

अंततः गुरु विश्वामित्र महारजा दशरथ से अनुरोध करके उनके पुत्र राम और लक्ष्मण को लेकर वन प्रदेश पहुंचे जहाँ पर राम ने ताड़का और सुबाहु जैसे राक्षसों का अंत किया। इसके पश्चात गुरु विश्वामित्र राम लक्ष्मण को लेकर जनकपुरी सीता स्वयंवर देखने आये और गुरुवर की आज्ञा से भगवान श्रीराम ने शिव धनुष भंग किया और राम – सीता विवाह के साथ महाराज दशरथ के पुत्र लक्ष्मण, भरत और शत्रुध्न का भी विवाह हुआ।

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निष्कर्ष Conclusion

इस लेख में आपने आपने महर्षि विश्वामित्र की जीवन कथा के बारे में पढ़ा। आशा है यह लेख आपको सरल लगा हो और गुरु विश्वामित्र की कहानी अच्छी लागि होगी। अगर यह लेख आपको पसंद आया हो तो इसे शेयर जरुर करें।

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