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Home » Essay » विधवा पुनर्विवाह पर निबंध Essay on Widow Remarriage in Hindi

विधवा पुनर्विवाह पर निबंध Essay on Widow Remarriage in Hindi

Last Modified: January 4, 2023 by बिजय कुमार Leave a Comment

विधवा पुनर्विवाह पर निबंध Essay on Widow Remarriage in Hindi

विधवा पुनर्विवाह पर निबंध Essay on Widow Remarriage in Hindi

विधवा पुनर्विवाह, यह मुद्दा अपने आप में ही काफी विवादास्पद है, कम से कम कुछ लोगों के लिए तो है, कुछ के लिए नहीं; पर सत्य तो यही है कि आज के आधुनिक दौर में भी ऐसे लोग हैं जो विधवा पुनर्विवाह जैसे संवेदनशील एवं महत्वपूर्ण विषय पर नाक भौंह सिकोड़ते हैं।

विधवा पुनर्विवाह पर निबंध Essay on Widow Remarriage in Hindi

क्या है विधवा पुनर्विवाह ? क्यों यह विवादास्पद है, आइए इस से जुड़े कुछ तथ्य जानते हैं। विधवा उस महिला को कहा जाता है जिसके पति की मृत्यु हो चुकी होती है। कोई भी महिला अनेकों कारणों से विधवा हो सकती है, जैसे आकस्मिक दुर्घटना या बीमारी आदि।

पुराने युग में बाल विवाह का भी बहुत चलन था, जहां छोटी बच्चियों का विवाह किसी ज्यादा उम्र वाले व्यक्ति से करा दिया जाता था; उस कारण भी विधवा जल्दी होने की आशंका ज्यादा थी। एक विधवा महिला को नीची दृष्टि से देखा जाता है।

हमारे पुरुष प्रधान समाज में इज्जत केवल पुरुष की ही मानी जाती है, अथवा महिला की इज्जत केवल पिता या पति से ही जुड़ी होती है, उसका खुद का अपना कोई आत्मसम्मान नहीं होता है।

जब विवाह होता है तो लड़की या महिला को यही समझाया जाता है कि अब यही तुम्हारा संसार है और पति ही सब कुछ है। एक औरत के जीवन के सब सुख दुख पति से ही जुड़े होते हैं। हंसी, रूप, रंग, श्रंगार, वस्त्र, आभूषण, सब पति कि खातिर ही होता हैं।

फिर जब उस पति की किसी कारण मृत्यु हो जाती है, तो यह सब ‘सांसारिक सुख’ छोड़ना पत्नी का धर्म माना जाता है। उससे यह तक अपेक्षा की जाती है कि वह पति कि चिता पर बैठ जाए और अपना जीवन भी वहीं समाप्त कर ले। जिस समाज में औरतों से पति की मृत्यु के बाद यह सब उम्मीद हो, तो सोचिए पुनर्विवाह पर तो बवाल होगा ही।

वहीं दूसरी ओर पुरुष पर समाज ऐसी बंदिशें, ऐसी पाबंदियां नहीं लगाता है। अगर किसी कि पत्नी की किसी कारणवश मृत्यु हो जाए, तो पुरुष बिना किसी झिझक के दूसरा विवाह कर सकता है। पुरुष से कोई सवाल नहीं करता है, समाज उस पर उंगली नहीं उठाता, ना ही पुरुष को किसी की अनुमति लेने की आवश्यकता है। यहां पर तथाकथित समाज के दोहरे मानक साफ देखने को मिलते हैं, जहां पर पुरुष बलशाली है, वहीं दूसरी ओर महिला को ‘भावहीन वस्तु मात्र’ ही समझा जाता है।

समाज के अनुसार विधवा महिला को एक सम्मानित जीवन जीने का कोई हक नहीं होता है, उसके जीवन में सब कुछ साधारण, बिना किसी अभिराम के होना चाहिए। बहुत अच्छे पकवान या भोजन खाने की अनुमति नहीं होती है, वस्त्र रंगहीन होते हैं: सुर्ख चटकीले रंग नहीं पहन सकती हैं, सर से घने काले लंबे बाल भी मुंडा दिए जाते हैं, फीकी जिंदगी जीने को मजबूर किया जाता है।

बहुत से परिवारों में तो ऐसा भी होता है कि पति की मृत्यु के बाद बहू से संबंध खत्म कर देते हैं, “क्योंकि अब बेटा ही नहीं रहा तो बहू से नाता क्यों रखें” !! कारणवश, विधवा महिला को मजबूरन विधवा आश्रम में रहना पड़ता है। इससे उनका जीवन और कठिन हो जाता है, ऐसी स्थितियों में महिला में बस नाम मात्र जीवन रह जाता है, जैसे मानो बस एक जिंदा लाश हो।

विधवा पुनर्विवाह जैसे मुद्दे से कितनी तकलीफ क्यों ?? कौन सी वह जड़े हैं जो इसका कारण बनती है, ऐसा क्या है हमारे समाज में ? क्या सोच है, क्या मानसिकता है ?! दरअसल हमारे समाज में महिला को मानसिक और शारीरिक, दोनों ही रुप से कमजोर माना जाता है।

इसलिए उसके जीवन की पूर्ण जिम्मेदारी पहले पिता पर और बाद में पति पर डाली जाती है। इस प्रकार वह पूरी जिंदगी बोझ का ही प्रतिरूप रहती है। हमारे समाज में आमतौर पर महिलाओं में कोई खास आत्मविश्वास या आत्मसम्मान नहीं होता है। क्यों नहीं होता है ??

आत्मविश्वास बनने ही नहीं दिया जाता है, उन्हें कमतर होने का एहसास कराया जाता है, वह हमेशा हीन भावना का शिकार रहती है। पहले पिता की इज्जत से जुड़ी होती है, और बाद में पति की इज्जत से।

हमारे समाज में महिलाएं खुलकर जी नहीं सकती है, अपने जीवन के फैसले खुद नहीं ले सकती हैं, जीवन के हर पड़ाव पर उन्हें दूसरों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। बचपन से ही उन्हें यह बताया जाता है, एहसास कराया जाता है कि वह सशक्त नहीं है, प्रबल नहीं है, वह दुर्बल है।

अगर कोई महिला इस रूढ़िवादी सोच को स्वीकार नहीं करती है, अपने जीवन को अपनी शर्तों पर जीना चाहती है, कुछ करना चाहती है तो उसे बहुत कठिन परिश्रम करना पड़ता है, क्योंकि कदम कदम पर कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है।

आज के अत्याधुनिक दौर में हम कितनी ही नारी सशक्तिकरण की बात कर ले, कितना ही कह लें कि ‘महिलाएं हर क्षेत्र में पुरुषों से कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है’, पर असल में यह सब ढोंग है, वास्तव में तथ्य कुछ और ही है, सब कुछ खोखला है। हाँ, हम मानते हैं कि कुछ महिलाएं, लड़कियां, बच्चियां तरक्की कर रही है शिक्षा के क्षेत्र में, नौकरियों में, पर अब भी आजाद एवं खुश महिलाओं का आंकड़ा बहुत कम है।

अभी भी बहुत सी बच्चियां ऐसी हैं जिन्हें स्कूल नहीं जाने दिया जाता है, बीच में ही पढ़ाई छुड़ा दी जाती है, उन्हें आगे बढ़ने का मौका नहीं दिया जाता है; कारणवश, पिछड़ी, दबी, कम आत्मविश्वास वाली महिलाओं का देश में आंकड़ा काफी ज्यादा है।

कुछ ऐसे परिवार हैं जो अपनी बेटियों को, बहनों को सशक्त देखना पसंद करते हैं, पर ऐसे अच्छी सोच वाले लोगों की गिनती काफी कम है। हाँ, काफी महिलाएं विभिन्न क्षेत्रों में आगे बढ़ रही हैं, काम कर रही है, पर कटु सत्य तो यही है कि वह भी दबे कुचले रूप से ही कार्य करती हैं, उनकी आवाज, उनका अस्तित्व उतना निखर नहीं पाता है।

हमारे समाज में पुरुष का दर्जा ऊंचा है, वही गांव के मुखिया हैं, सरपंच है, सरकार उन्हीं की है, उन्हीं की लाठी है, उन्हीं की भैंस है, अथार्त बस उन्हीं की इज्जत है। सामाजिक तौर पर तो महिलाओं का सम्मान कम है ही, और तो और धार्मिक रूप से भी महिला, पुरुष से कम ही आंकी जाती है। हम यह अपने धार्मिक ग्रंथों में देख सकते हैं, कि पति को परमेश्वर एवं देवता शब्द से संबोधित किया गया है।

विवाह एक ऐसा पवित्र बंधन है जिसमें दो लोग एक दूसरे के लिए जीवन भर के साथी होते हैं। दो अलग-अलग चरित्र के लोग जब विवाह में बंधते हैं, तो प्रेम से ही रिश्ता फलता फूलता है। जीवन के हर पहलू में दोनों का बराबर प्रतिभाग आवश्यक होता है। पर हमारे समाज में, जहां लड़कियों में आत्मविश्वास ही नहीं होता है, वह विवाह के रिश्ते में भी दबी रह जाती हैं एवं उनका सम्मान कुचल दिया जाता है।

क्या यह सब ठीक है ?? पति की मृत्यु के बाद महिला को भी अपना जीवन खत्म कर देना चाहिए ? जीवन के रस से वंचित हो जाना चाहिए !! क्या पति की मृत्यु के बाद महिला में सब इच्छाएं खत्म हो जाती है ? क्या उसे एक अच्छा जीवन जीने का हक नहीं है ? वह भी तो मनुष्य है, क्या उसके अपने जीवन की कुछ जरूरतें नहीं है ?

क्या वह एक नए सिरे से जीवन की शुरुआत नहीं कर सकती है ? क्या उसे अपनी आवाज उठाने का हक नहीं है !! क्या वह प्लास्टिक का एक पुतला है, जो उसमें एहसास नहीं, जज्बात नहीं ?!  इन सब सवालों का जवाब देना तो दूर, समाज इनके बारे में मंथन करना भी ज़रूरी नहीं समझता है।

हमारे देश का सामाजिक एवं आर्थिक विकास भी, पुरुष एवं महिला दोनों ही आबादी पर बराबर तरीके से निर्भर करता है। जब महिला एवं पुरुष दोनों अपने अपने जीवन के चरणों में आगे बढ़ेंगे, देश के विभिन्न कार्यों में भागीदार होंगे, तभी देश का विकास होगा।

केवल पुरुषों के प्रबल होने से अथवा महिलाओं के दबे कुचले होने से समाज कभी भी स्वस्थ नहीं हो सकता है तथा प्रभुत्व की दीमक उसको खोखला ही कर देगी; ऐसे में देश का विकास होना संभव ही नहीं है। सभी को ऐसे कदम उठाने होंगे, जिससे महिलाओं को बराबरी का हक मिले, चाहे वह शिक्षा का क्षेत्र हो, या नौकरियों में, एवं घरों में भी।

इस प्रकार उनमें प्राकृतिक रूप से आत्मसम्मान पनपेगा और वह जीवन की हर कठिनाई को पार कर पाएंगी। विधवा पुनर्विवाह जैसे मुद्दे को लेकर सिर्फ हवा हवाई नहीं, बल्कि व्यवहारिक बात करनी होगी।

विधवा पुनर्विवाह से संबंधित और अधिक कड़े कानून बनाने एवं लागू करने की आवश्यकता है, जो बिना किसी विलंब के जल्द से जल्द प्रयोग में आ सके एवं किसी का व्यक्तिगत हस्तक्षेप कानून का मजाक ना बना पाए।

साथ ही साथ महिलाएं भी इतनी सशक्त हो के उनको संबंधित सभी कानूनों के बारे में जानकारी हो और उनमें इतनी क्षमता हो के आड़े वक्त में अपने अस्तित्व के लिए रूढ़िवाद के खिलाफ आवाज उठा सके।

Filed Under: Essay Tagged With: विधवा पुनर्विवाह पर निबंध

About बिजय कुमार

नमस्कार रीडर्स, मैं बिजय कुमार, 1Hindi का फाउंडर हूँ। मैं एक प्रोफेशनल Blogger हूँ। मैं अपने इस Hindi Website पर Motivational, Self Development और Online Technology, Health से जुड़े अपने Knowledge को Share करता हूँ।

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