मनसबदारी व्यवस्था का इतिहास History of Mansabdari system in Hindi

इस लेख में हम आपको मनसबदारी व्यवस्था का इतिहास History of Mansabdari system के बारे में विस्तार से जानकारी देंगे।

मनसबदारी व्यवस्था का इतिहास History of Mansabdari system

मनसब शब्द का अर्थ

मनसब का अर्थ है पद, दर्जा या ओहदा। मनसबदारी प्रणाली की शुरुआत मंगोल आक्रमणकारी चंगेज खान ने की थी। उसने अपनी सेना को दशमलव के आधार में संगठित किया था। सबसे छोटी इकाई में 10 सिपाही हुआ करते थे।

मनसबदारी प्रणाली की शुरुआत मुगल शासक अकबर ने की थी। यह एक प्रकार के प्रशासनिक प्रणाली थी। इस व्यवस्था से पहले जागीरदारी प्रथा प्रचलित थी जिसमें जागीरदार सैनिक और घोड़े रखते थे पर इस व्यवस्था में कई दोष थे।

बहुत से जागीरदार निश्चित संख्या में घोड़े, घुड़सवार और सैनिक नहीं रखते थे फिर भी सरकारी धन लेते रहते थे। अकबर ने जागीरदारी प्रथा के स्थान पर मनसबदारी प्रथा की स्थापना की थी। जिस व्यक्ति को सुल्तान मनसब देता था उसे मनसबदार कहा जाता था।

इस व्यवस्था में हर सैनिक और असैनिक अधिकारी को कोई ना कोई पद मिला था। सभी पदों को जात और सवार नामक दो वर्गों में बांटा गया था।

जात का अर्थ है व्यक्तिगत पद होता था, सवार का अर्थ घुड़सवारों की निश्चित संख्या से होता था। उस मनसबदार को निश्चित संख्या में घुड़सवारों को रखना होता था। मनसबदार पद को प्रतिष्ठा का पद माना जाता था। समाज में उसका काफी सम्मान था।

मनसबदारी प्रणाली की विशेषताएं

  1. अकबर ने जात और सवार मनसबदारों को तीन श्रेणियों में बांटा था।
  2. प्रथम श्रेणी का मनसबदार– इस प्रकार के मनसबदार को ऊंचा जात (मनसब) दिया जाता था। इसलिए उसे अधिक मात्रा में घुड़सवार रखने होते थे। उसे अधिक रकम सरकार से मिलती थी। प्रथम श्रेणी के मनसबदार को 12 हजार रूपये की रकम दी जाती थी। प्रथम श्रेणी का मनसबदार 10 हजार घुड़सवार रख सकता था।
  3. निम्न श्रेणी के मनसबदार–  इस प्रकार के मनसबदार को 10 से अधिक सिपाही रखने की अनुमति थी।
  4. दूसरी श्रेणी का मनसबदार– इस प्रकार के मनसबदार को अपनी जात (व्यक्तिगत पद) से अधिक संख्या में घुड़सवार रखने की अनुमति थी।
  5. तीसरी श्रेणी का मनसबदार– इस प्रकार के मनसबदार को अपनी जात (व्यक्तिगत पद) से आधे से कम सवार रखने का अधिकार था।
  6. सभी मनसबदारो को एक घुड़सवार के लिए दो घोड़े की व्यवस्था करनी होती थी और जात पद के अनुसार घुड़सवार रखने की अनुमति थी।

मनसबदारों की नियुक्ति

मनसबदारों की नियुक्ति स्वयं सम्राट अकबर करते थे। बादशाह अकबर ने 7 हजार का मनसबदार कुछ महत्वपूर्ण लोगों को ही बनाया था जो उनके विश्वासपात्र थे जैसे राजा मानसिंह, मिर्जा अजीज कोका, मिर्जा शाहरुख अकबर। राजकुमारों को 12 हजार तक मनसब दिया था।

मनसबदारों का वेतन

मुगल शासनकाल में मनसबदारो को बहुत अच्छा वेतन दिया जाता था। प्रायः नकद वेतन दिया जाता था। कभी कभी जागीर का राजस्व भी वेतन के साथ दिया जाता था। दिए गए वेतन से मनसबदार अपने सिपाही और घुड़सवारों का खर्च निकालते थे। आमतौर पर मनसबदार बहुत अच्छा जीवन व्यतीत करते थे क्योंकि उन्हें कर नहीं देना होता था।

उस समय रुपए की क्रय शक्ति बहुत अधिक होती थी। सभी मनसबदार सुखी शान शौकत वाला जीवन जीते थे। प्रथम श्रेणी के प्च्चह्जारी को 30000 प्रति महीना, द्वितीय श्रेणी के प्च्चह्जारी को 29000, तृतीय श्रेणी के प्च्चह्जारी को 28000 प्रति महीने दिया जाता था। इसके साथ प्रत्येक मनसबदार को 2 रूपये प्रति महीना के हिसाब से अतिरिक्त वेतन दिया जाता था।

मनसबदारों के कार्य

मनसबदारों का मुख्य कार्य युद्ध के समय सैनिक सहायता और घुड़सवार देना था। सैन्य अभियान में घुड़सवार भेजे जाते थे। दुश्मन सेना से युद्ध करना, नए प्रदेश जीतने के लिए युद्ध करना, विद्रोह के समय मदद करना जैसे कार्य मनसबदारों को करना होता था। इसके साथ ही गैर सैनिक और प्रशासनिक कार्य भी उन्हें करने होते थे।

मनसबदार के लिए नियम

अकबर ने मजदूरों की मनमानी रोकने के लिए अनेक नियम बनाए थे। मनसबदारों को केवल कुशल और योग्य सवारों घुड़सवार रखने की अनुमति थी। हर सवार को अपना पुलिया (खाता) रखना होता था। घोड़े को दागना भी होता था जिससे उसकी पहचान की जा सके। बादशाह खुद सभी मनसबदारों के सिपाही और घुड़सवारों का निरीक्षण करता था।

मनसबदारों को हर घुड़सवार के लिए इराकी या अरबी नस्ल के दो घोड़े रखने होते थे। मनसबदारों को अपना वेतन लेने के लिए बादशाह के पास आना होता था। मृत्यु हो जाने पर मनसबदार की सारी संपत्ति जप्त कर ली जाती थी। इन नियमों के कारण ही मुगलों की सेना बहुत शक्तिशाली बन गई थी।

मिश्रित सवार

बादशाह अकबर ने यह व्यवस्था की थी कि सभी मनसबदारों के जात और सवारों में सभी जाति धर्म के लोग होने चाहिए। मुगल, पठान, राजपूत जैसी सभी जातियों से सवार होने चाहिए। अकबर का यह मानना था कि मिश्रित सवार होने से धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा मिलेगा और किसी प्रकार का धार्मिक पक्षपात सवारों के साथ नहीं होगा। इससे सेना मजबूत होगी।

अनेक प्रकार के सैनिकों की भर्ती

बादशाह अकबर ने अपनी सेना के लिए कई प्रकार के सैनिकों की भर्ती की थी जैसे तीरंदाज, बंदूकची, खंदक खोदने वाले आदि। यह सभी अलग अलग वेतन पर रखे गए थे। ईरानी और तुर्की सवारों को अधिक वेतन दिया जाता था। बाकी सवारों को 20 रूपये प्रति महीना दिया जाता था। पैदल सेना का वेतन कम होता था। उन्हें 3 प्रतिमाह दिया जाता था।

मनसबदारी प्रणाली के गुण Merits of Mansabdari System

  1. मनसबदारी व्यवस्था ने जागीरदारी व्यवस्था के दोषों को समाप्त कर दिया था। मनसबदार बादशाह के प्रति वफादार रहते थे और विद्रोह की संभावना बहुत कम थी।
  2. अनेक प्रकार के सिपाही, घुड़सवार, पैदल सेना रखने से अकबर की सेना बहुत ही मजबूत हो गई थी। मनसबदारी व्यवस्था लागू होने के बाद सारी जमीन पर बादशाह का अधिकार था इसलिए खजाने में वृद्धि हुई थी। अच्छा काम करने पर उनका पद और मनसब बढ़ाया जाता था। खराब प्रदर्शन करने पर उनका पद घटाया जा सकता था।
  3. इसलिए सभी मनसबदार ठीक से काम करते थे। पर बाद में इसमें मनसबदारी प्रथा पुश्तैनी ढांचे पर काम करने लगी और मनसबदारो के बेटों को नया मनसबदार बनाया जाने लगा।

मनसबदारी प्रणाली के दोष Demerits of Mansabdari System

फिजूलखर्ची को बढ़ावा देना

कुछ विचारको का मानना है कि मनसबदारी व्यवस्था से फिजूलखर्ची और बढ़ गई थी।

विलासिता को बढ़ावा

किसी भी मनसबदार की मृत्यु हो जाने पर उसकी सारी संपत्ति जप्त कर ली जाती थी। इस नियम के कारण सभी मनसबदार अपने जीवित काल में विलासिता के साथ जीवन जीते थे और बहुत अधिक धन खर्च करते थे। उनका नैतिक पतन हो रहा था। यह भी मनसबदारी व्यवस्था में एक दोष था।

भ्रस्टाचार को बढ़ावा

बहुत से मनसबदार निरीक्षण के समय दूसरे मनसबदारों के सिपाही और घुड़सवारों को दिखा देते थे। असलियत में उतने सैनिक और घुड़सवार नहीं रखते थे। इस तरह वे बेईमानी करके सरकारी रकम वसूलते रहते थे। यह सारी कार्यवाही कागजों पर सीमित हो गई थी। इससे भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिल रहा था।  

जाति व्यवस्था को बढ़ावा

मनसबदारी व्यवस्था के समय में जातिगत भेदभाव किया जाता था।

बादशाह के प्रति वफादारी में कमी

सवार और जात दोनों प्रकार के सिपाही अपने मनसबदारों के प्रति अधिक वफादार होते थे क्योंकि उन्हें पैसा सीधे सरदारों से प्राप्त होता था। बादशाह के प्रति वो इतने अधिक वफादार नहीं होते थे।

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